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वि० सं० १०७४-१६०८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जब्धियां एवं चमकार पूर्ण शक्तियां पा होगई थीं। देवियां आपके चरणों की सेविकाएं बनगई थीं ! आपकी व्याख्यान शैली इतनी मधुर, रोचक, पाचक एवं हृदयग्राहिणी थी कि बड़े २ राजा महाराजा भी सुनने के लिए लालायित रहने पापभी की तत्व समझाने की शैली इतनी सरस, सरल एवं रोचक थी कि श्रवण करने वाले श्रोताओं का मन सूरिजी की सेवा से विलग रहना नहीं चाहता था । आपश्री क्रमशः विहार करते हुए नागपुर (नागौर) पधारे। वहां के श्रीसंघ ने अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यश्री का स्वागत किया और चातुर्मास के लिये अत्यन्त आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। निदान १०७५ का वह चातुर्मास आपने नागपुर में ही किया। आपश्री का व्याख्यान हमेशा धाराप्रवाहिक न्याय से होता था। एक दिन आपने परमपावन तीर्था धिराज श्री शत्रुञ्जय का महात्म्य बतलाते हुए उक्त तीर्थ का इतना रोचक वर्णन किया कि व्याख्यान सभा स्थित सकल जन समाज का मन सहसा ही तीर्थ यात्रा करने के लिये आकर्षित होगया। तत्काल ही आदित्यनाग गोत्रीय चोरलिया शाखा के धन वेश्रमण शा० करमण की इच्छा संघ निकालने की होगई । शत्रुञ्जय तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने की उन्होंने उसी व्याख्यान में खड़े होकर आज्ञा मांगी और श्रीसंघ ने धन्यवाद के साथ सहर्ष आदेश भी दे दिया। बस फिर तो था ही क्या ? शा० करमण ने अपने आठों पुत्रों को बुला कर संघ सामग्री तैय्यार करने की आज्ञा देदी । शा० करमण ने सुदूर प्रदेशों में अपने आदमियों को भेजकर साधु, साचियों को विनती करवाई और श्राद्धवर्ग के लिये स्थान २ पर आमन्त्रण पत्रिकाएं भिजवाई। मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन सूरिजी की नायकता और संघपति करमण के अध्यक्षत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया ! पट्टावलीकार लिखते हैं कि इस संघ में ३००० साधु साध्वियां और एक लक्ष से अधिक श्राद्धवर्ग थे । जब संघ क्रमशः खटकुम्न नगर पहुँचा तो वहां के संघ ने उक्त संघ का अच्छा स्वागत किया। परस्पर प्रेम भावना को बढ़ाने के लिये दोनों की ओर से एक २ दिन स्वामीवात्सल्य हुआ। मन्दिरों में ध्वजा महोत्स्व आदि हुआ। बाद वहां से रवाना हो संघ, उपकेशपुर नगर आया। वहा भो पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, अष्टाह्निका महोत्सव एवं ध्वजा महोत्सव किया। वहां से ग्रामों एवं नगरों के मन्दिरों के दर्शन करता हुआ
घ ने तीथोधिराज का दूर से दर्शन कर मोतियों से बधाया और तीर्थ पर जाकर सेवा पूजा भक्ति कर अपने जन्म को पवित्र बनाया जिस समय नागपुर का संघ शत्रञ्जय पर आया था उस समय करीब पां नगरों के संघ और भी वहां उपस्थित थे। सबका समागम परस्पर प्रेम में एवं अानन्द में वृद्धि कर रहा था। पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, अष्टान्हिका महोत्सव एवं ध्वजारोहण में संवपति करमण ने अत्यन्त उदा. रतापूर्वक द्रव्य व्यय किया। जब माला का समय आया तो साढ़े सात लाख की बोली से माला मरुधर के आदित्यनाग गौत्रावतंस संघपति करमण के कण्ठ में सुशोभित हुई।
__मरुधर वासियों में धर्म का बड़ा भारी गौरव था। वे धार्मिक क्षेत्रों में तन मन और धन से द्रव्य व्यय करते थे; यही कारण था कि शा० करमण माला के लिये साढ़े सात लाख का द्रव्य बोलने में नहीं हिच किचाया। सम्पूर्ण कार्यों के सानंद सम्पन्न होने पर संघ वापिस लौटते समय पाटण नगर में आया जो सूरिजी की जन्मभूमि थी । पाटण के संघ ने आगत संघ का अच्छा सत्कार किया। शा० राजा ने संघ को प्रीति-भोज और पहिरावणी दी। संघपति करमण ने पाटण के मन्दिरों के दर्शन कर चढ़ाया चढ़ाया। तत्पश्चात् संघ रवाना होकर नागपुर आया। श्रीसंघ ने आगत संघ का समारोह पूर्वक स्वागत कर बड़े ही महोत्सव के साथ बधाया । संघपति करमण ने संघ को स्वामीवात्सल्य, और साथ में स्वर्ण मुद्रिका तथा सुंदर वनों की प्रभावना देकर विसर्जित किया । अहा ! उस समय जैन समाज की धर्म पर कितनी श्रद्धा थी ? एक २ धार्मिक कार्यों में लाखों रुपये व्यय कर वे महापुरुष लाखों मनुष्यों के पुण्य बध के कारण बन जाते थे।
इधर आचार्यश्री भी संघ के साथ नागपुर पधारे और वहां से उपकेशपुर की ओर विहार कर दिया। १४४०
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