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________________ वि० सं० १०७४-११०८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास AMAnanve.viwwwmarnal के उपदेशश से सुचंति गौत्रीय शाह फागु ने भगवान महावीर का मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया और मन्दिरजी के समीप ही पौषध, सामाणिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक कृत्यों के लिये गौषधशाला भी डिडू गौत्रीय शा० अर्जुन ने वीतगग प्रणीत आगम-ज्ञान की भक्ति कर महा प्रभाविक श्री भगवती सूत्र व्याख्यान में बंचाया। उक्त शाखोत्सव में एक लक्ष द्रव्य व्यय किया । इस तरह उक्त वतुर्मास में प्राचार्यश्री के विराजने से जैनधर्म की महती प्रभावना हुई। एक समय आचार्यश्री स्थण्डिल भूमि को पधार कर वापिस लौट रहे थे। इधर एक ओर से बहुत से अश्वारोही किसी अनिश्चित स्थान की ओर जारहे थे। मार्ग में परस्पर दोनों का समागम (मिलन ) होगया। विचक्षण आचार्यश्री ने उन सैनिकों के बाह्य चिन्हों को देख कर ही यह अनुमान कर लिया कि ये अवश्य ही क्षत्रिय वंशोत्सन्न व्यक्ति हैं और आखेट (शिकार ) के लिये वन की ओर जारहे हैं । सूरिजी का प्रभाव उनकी विद्वत्ता एवं आचार विचारों की निर्मलता के कारण पहिले से ही इत उत सर्वत्र प्रसरित था अतः आचार्यश्री के तपस्तेज का प्रभाव उन अवरोही सैनिकों पर भी तत्काल पड़ा। उन घुड़ सवारों में से प्रमुख व्यक्ति चौहान राव आभड़ ने घोड़े पर बैठे हुए सूरिजी को वंदन किया । सूरिजी ने धर्म लाभ देते हुए पूछा-रावजी ! आज किधर जाना हो रहा है ? रावजी ने कहा-महाराज! हम लोग तो सांसारिक मायाजाल एवं प्राञ्चों में फंसे हए पातकी जीव और पाप के कार्य को ही लक्ष्यीभत बना अपने मार्ग की ओर अग्रसर हो रहे हैं। सूरिजी-रावजी! पाप का कद्रफल भी तो आपको ही भोगना पड़ेगान ? रा० आभड-हाँ, यह तो निश्चित एवं सर्वधर्म सम्मत निर्विवाद कथन है महात्मन् ! पर किया ही क्या जाय ? हम लोगों के लिये तो यह एक व्यसन ही होगया। सूरिजी-- यदि किसी सिंह को मनुष्य मारने का व्यसन पड़ जाय तो ? रा० आभड-तो क्या तत्काल ही उसे मौत के घाट उतारना चाहिये। सूरिजी-तो उसी तरह फिर आपके लिये.................. ? आचार्य देव के उक्त कथन का उत्तर देते न बना । रावजी ने एकदम मौनावलम्बन ले लिया । अतः सूरिजी ने पुनः अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया महानुभावों ! जैसे आपको अपना जीवन प्यारा है वैसे ही सकल चराचर प्राणियों को अपने २ प्राण प्रिय है। भगवान ने आचाराङ्ग सूत्र में कहा है कि “सव्वे सुह साया, दुह पडिकूला, अप्पिय वहा पिय जीविणो तम्हा गातिवाएञ्च किंचणं" अर्थात् सुखेच्छा व सुख प्राप्ति जगज्जीवों के लिये अनुकूल है और दुःख सर्वथा प्रतिकूल है। जीवन सब को प्रिय है भरना सबको अप्रिय है अतः किसी भी जीव को मन, वचन काया से तकलीफ-यातना नहीं पहुँचानी चाहिये । क्योकि-"सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं न मरिजिउँ" अर्थात् संसार के सकल प्राणी जीने की इच्छा करते हैं भरने की नहीं। अतः किसी भी प्राणी का वध करके पाप का भागी होना निश्चय ही दुःखप्रद है। दूसरी बात किसी मृत कलेवर का स्पर्श हो जाने पर तो आप लोग स्नान वगैरह से शुद्धि करते हो पर जीते हुए जीवों की घात करके उसका मांस भक्षण करने से आप लोगों की क्या गति होगी ? आप जैसे वीर क्षत्रियों को यह शोभा नहीं देता है। भगवान रामचन्द्र, श्रीकृष्ण तथा महाबली पाण्डवों का रक्त आपकी नसों से निकल गया है इसी वास्ते श्राप ऐसे जन-गर्हित कार्य को करने में भी अपनी बहादुरी समझते हो। अरे! आप लोगों के रसास्वादन के लिये तो कुदरती गुड़, शक्कर, घृत, मेवादि असंख्य पदार्थ वर्तमान हैं फिर बेचारे निरपराधी एक प्राणियों का वध करके परभव के लिये पाप का भार क्यों लाद रहे हो ? ___ इस प्रकार अहिंसा विषयक सूरिजी के लम्बे चौड़े वक्तृत्व ने उन लोगों के ऊपर इतना प्रभाव डाला कि उन सबों का हृदय दया से लबालब भर आया। पाखिर क्षत्रिय तो क्षत्रिय ही थे । दया उनके लिये कोई १४४२ For Private & Personal use Only राव भाभड़ और सूरिजी का संवाद womaiwwwmanoranawwanmanursinommaraww Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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