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वि० सं० ७७८०८३७ ।
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
५-कंदहार के राजा को १२००० मुडा धान दिया। ६-पाटण के राजा को ८००० मुंडा ७-शेष जनता को ८०००० , ८--मारवाड़ को १००० ,
जगडु ने ११२ दानशालायें खोली १०८ मन्दिर बनाये ३ वार यात्रार्थ संघ निकाला दुष्काल में बहुत से तालाव बावड़ियां भी बनाई धन्य है ऐसे नरपुंगवों को १५०-खेमा देदेणी की उदारता का हाल ऊपर प्रस्तावना में लिखा गया है ऐसे उदार नर रत्नों से हो
जैन शासन पूर्ण शोभायमान था । ऐसे तो कइ गुप्त रूप में शाह रहे होंगे ? १५१-आपके चारणी देवी का इष्ट था । बादशाह के मांगे हुये स्वर्ण पाट देकर शाह पदवी का रक्षण किया
लुनाशाह ने और भी धर्म कार्य कर करोड़ द्रव्य व्यय कर नाम कमाया। १५२-आपने चौदह बार संघ निकाल कर सर्व तीर्थो की कई बार यात्रा की और संघपूजा कर पहरामणी
दी जिसमें चौदह करोड़ रुपये व्यय कर यश कमाया । १५३---आपके समय सं० १३६९ बादशाह अलाउद्दीन ने तीर्थ श्रीशत्रुजय के सर्व मंदिर मूर्तियां तोड़ फोड़
कर नष्ट भ्रष्ट कर डाली थी उस समय गुरु चक्रवर्ति आचार्य सिद्धसूरि के उपदेश से उन मुसलमानों के कट्टर शासन में समराशाह ने केवल दो वर्षों में ही शत्रुजय को पुनः स्वर्ग र. दृश्य बनाकर आचार्यश्री के करकमलों से १३७१ में पुनः प्रतिष्ठा करवाइ जिस मूर्ति का आज तक असंख्य लोग सेना पुजाकर लाभ उठा रहे हैं। इस पुनीत कार्य में तथा संघ निकालने में शाह समरा ने करोड़ों रुपये पानी की तरह वहा दिये सं० १०८ में प्राग्वट जावड़ ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया वाद सं० १२२३ में मंत्री उदायन के निश्चयानुसार उसके पुत्र वाग्भट ने भी उद्धार कराया पर ओसवाल जाति में श्रीमान् समरासिंह ही भाग्यशाली हुश्रा कि जिसने सबसे पहिले इस तीर्थ का उद्धार कर अनन्त पुन्य के साथ सुयश कमाया। इस समरासिंह के उद्धार को अपनी आँखों से देखा है उन्होने उसी समय सब हाल को लिपिवद्ध किया था कि भरतादि महान् शक्तिशालियों ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया था पर समरासिंह के उद्धार का महत्त्व सब से बढ़ चढ़ के है कारण भरतादि के उद्धार के समय में तो समय एवं सर्व साधन अनुकूल थे पर समरा के समय में तो मुसलमानों में भी अलाउद्दीन का धर्मान्धशासन उसके कर शासन में केवल दो ही वर्षों में तर्णोद्धार करवा कर निर्विघ्नतया प्रतिष्ठा करवा देना एक टेड़ी खीर थी पर समरसिंह ने अपने बुद्धि विवेक चातुर्य से असाध्य कार्य को भी सुसाध्य बना दिया इसमें खास विशेषता तो गुरु चक्रवर्वि प्राचार्यसिद्धसूरिके सदुपदेश एवं कृपा की ही थी। उस समय के लोग धनकुबेर राज्यमान्य होने पर भी उन लोगों की धर्म पर कितनी अटूट श्रद्धा और गुरु वचनों पर कितना विश्वास था कि उनके थोड़ेसे उपदेश से बात की बात में वे लोग करोड़ों रुपये व्यय करने को कटिवद्ध हो जाते थे । धन्य है उस समय
के आचार्यों एवं उनके भक्त लोगों को । क्या ऐसा समय हम लोगों के लिये भी श्रावेगा। ६५४-देवी ने श्रापको अक्षय निधान बतलाया जिससे आपका घर धन से भर गया। देवी की स्वर्ण मय
मूर्ति बनाई बावन जिनालय का मंदिर बनाया सुवर्णमय १०८ अंगुल की मूर्ति बना कर प्रतिष्ठा करवाई पांच वार संघ निकाल के सर्व तीर्थों की यात्रा की । श्री संघ को ११ बार घर अंगणे बुलाया अंतिम & उस समय का माप एक मुंडा कई मण धान का होता था।
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७४॥ शाहों की ख्याति
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