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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ हो सकता है अत: उस पर इतना जोर नहीं दिया जा सकता है पर ऐतिहासिक प्रमागों की ओर देखा जाय तो भ० महाबीर की निवार्ण भूमि के लिये जितने प्रमाण विदिशा एवं सांची नगरी के लिये मिलते हैं उतने पूर्व दिशा की पावापुरी के लिये नहीं मिलते हैं। श्रीमान् शाह की उपरोक्त मान्यता अभी तक जैन समाज में सर्वमान्य नहीं हुई इतना ही क्यों पर कई लोग उपरोक्त मान्यता का विरोध भी करते हैं और ऐसा होना किसी अपेक्षा से ठीक भी है कारण चिरकाल से चली आई मान्यता एवं जमे हुए संस्कारों को एकदम बदल देना कोई साधारण बात नहीं है पर शाह की शोध खोज ने इतिहास क्षेत्र पर एक जबर्दस्त प्रकाश डाला है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है फिर भी इस बात को में भ० महावीर के अन्तिम बिहार पर ही छोड़ देता हूँ कि वे अपने अन्तिम वर्ष का बिहार किस ओर किया था जिससे पता लग जायगा कि आपका अंतिम चतुर्मास तथा निर्वाण पूर्व देश की पावापुरी में हुआ था या आवंती प्रदेश की विदिशा नगरी की पावापुर में ? सांची स्तूप-के विषय चाहे भ० महावीर का निर्माण विदिशा की पावापुरी में हुआ हो चाहे. पूर्व देश की पावापुरी में हुआ हो पर वे स्तूप भ० महावीर के नाम पर बनाये गये हैं इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है कारण एक पूज्य पुरुष की स्मृति के लिये एक स्थान पर ही नहीं पर अनेक स्थानों पर स्मारक खडे कराये जा सकते हैं। ३-भारहूत स्तूप-यह स्तूप अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी के पास इस समय खडा है परन्तु चम्पा नगरी के स्थान इस समय भारहूत नाम का छोटा सा प्राम ही रह गया है इस कारण से उस स्तूप का नाम भारहूत रखा गया है और इस स्तुप के लिये डॉ-सर कनिंगहोम ने एक पुस्तक लिखकर खुब विस्तार से अच्छा प्रकाश डाला है पर सर कनिंगहोम ने भारहूत स्तूप को भी बोद्ध धर्म का स्तूप होना लिख दिया है जो वास्तव में वह स्तूप जैन धर्म का है । इसके लिये यह प्रश्न होना स्वभाविक ही है कि जब स्तूप जैन धर्म का है सब निर्पक्ष पाश्चात्यों ने उस स्तूप को बौद्धों का होना क्यों लिख दिया होगा ? इसके लिये मैंने सिक्का-प्रकरण में ठीक विस्तार से खुल्लासा कर दिया है कि पाश्चात्य विद्वानों की इस भूल का खास कारण उनके पास उस समयजैनधर्म के साहित्य का अभाव ही था और बोद्धधर्म केलिये उनके मनमन्दिर में पहले से ही सजड़ संस्कार जमे हुए थे अतः उन्होंने एक भारहूत स्तूप ही क्यों पर जितने प्राचीन स्तूपादि जो कुछ स्मारक मिला उन संवकों बोद्धों के ही ठराय दिये-पर खयाल करके देखा जाय तो प्रस्तुत स्तूर के साथ बौद्धों का थोड़ा भो सम्बन्ध नहीं था पर जैनधर्म का घनीष्ट सम्बन्ध पाया जाता है जैसे प्रथम तो चम्पानगरी जैनों के बारहवाँ तीर्थङ्कर की निर्वाण कल्याणक भूमि एक धाम तीर्थ रूप है जैसे मष्टापद शिखर गिरनार पावापुरी यात्रा के धाम है वैसे चम्पानगरो भी है । दूसरा श्रीमान् शाह के कथनानुसार भ० महावीर को केवल ज्ञान भी इसी प्रदेश में हुआ था यही कारण है कि सम्राट् अजातशत्रु आपनी राजधानी मगर देश से उठाकर चम्पानगरी में लाया था इनना ही क्यों पर इतिहास से यह भी पता मिलता है कि कौशल पति राजा प्रसेनजित चम्पानगरी में आकर भ० महावीर की रथयात्रा का महोत्सव किया था जिसमें भ० महावीर की सवारी निकाली उस समय रथ के अश्व एवं बलद न जोत कर भक्ति से श्राप स्वयं रथ को खेंचा था और राजा ने अपनी ओर से एक स्तम्भ भी बनाया था सत्राट कूणिक ने भी इस धाम तीर्थ की भक्ति भावना कर वहां पर एक स्तम्भ आपने भी बनाया जिस पर अपने नाम का शिलालेख भी खुदवाया जो भाज भी "भगवान वंदे. अजातशत्रुः विद्यमान है अतः चम्पानगरी जैनों का एक धाम तीर्थ हाने में मारहुत स्तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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