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वि० सं० ७७४-८३७]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पाण्डित्य, तर्क शक्ति के वैचित्र्य एवं विषय प्रतिपादन शैली की अपूर्वता से सकल जन समाज आपकी ओर । प्रभावित हो गया । वादी लोग तो आपके नाम श्रवण मात्र से ही घबराने लगे।
पं० मुनि विमलचन्द्र प्रभानिधान, हरिश्चन्द्र, सोमचन्द्र, कुलभूषण, पार्श्वचंद्र, शान्तिचन्द्र, तथा अशोकचन्द्र आपके सहपाठी-विद्या, मन्त्र का अभ्यास करने वाले साथी थे ।
__आचार्यश्री ने मुनि रामचन्द्र को सूरिपद योग्य सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न एवं पट्ट का निर्वाह करने में सब तरह से समर्थ जान कर सकल श्रीसंघ की अनुमति से आपको सूरिपद विभूषित कर दिया। सूरिपद अर्पणानंतर आपका नाम देवसूरि स्थापित किया ।
श्राचार्य देवसूरि ने वीरनाग की वहिन को दीक्षा देकर उसका नाम चन्दनबाला रक्खा । चन्दनबाला साध्वी भी दीक्षानन्तर तप संयम में संलग्न हो गई।
एक समय आचार्य देवसूरि ने धोलका की ओर विहार किया। उस समय वहां के एक श्रद्धासम्पन्न, धर्मनिष्ठ श्रावक ने श्री सीमंधर स्वामी का एक विशाल मन्दिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा के लिये उसने सूरिजी से प्रार्थना की । सूरिजी ने भी उक्त प्रार्थना को मान देकर श्रीसीमंधर स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम पूर्वक करवाई। तदनन्तर सूरिजी ने वहां से सपाद लक्ष प्रान्त की ओर विहार किया । क्रमशः आचार्य श्री आबूपर आये तब आपके साथ आये हुए अम्ब प्रसादजी मन्त्री को सर्प ने काट खाया। इस पर वादी देवरि के चरणोदक छांटनेसे मन्त्री तत्काल ही विष मुक्त हो गया । पश्चात् युगादीश्वर की यात्रा कर अनन्त पुण्योंपार्जन किया।
उसी दिन रात्रि में अम्बादेवी ने प्रगट होकर देवसूरि को कहा कि-सपादलक्ष प्रान्त का विहार बन्द करके वापिस आप शीघ्र ही पाटण पधार जाइये कारण आपके गुरुदेवश्री का आयुष्य केवल आठ मास का ही अवशिष्ट रहा है । सूरिजी ने भी देवी के कथन को स्वीकार कर तत्काल ही पाटण की ओर विहार कर दिया। क्रमशः पाटण पहुँच कर गुरुदेव को वंदन किया व अम्बादेवी कथित वचन आचार्यश्री को कह सुनाये । आचार्यश्री चन्द्रसूरि अपने आयुष्य काल को नजदीक जानकर अन्तिम संलेखना में संलग्न होगये ।
पाटण में एक भागवत् वादी देवबोध नामका पण्डित श्रआया। उसने अपने पाण्डित्य के गर्व में एक श्लोक लिखकर द्वार पर लटका दिया कि जो कोई पण्डित हो वह मेरे उक्त श्लोक का अर्थ करे
एक द्वि त्रि चतुःपंच षण्मेनकमनेनकाः देवबोधे मयि क्रुद्ध षण्मेनक मनेनकः ॥१॥
छः मास व्यतीत होगये पर कोई भी उस श्लोक का अर्थ न बतला सका। इस बात का पाटण नरेश को वहुत ही दुःख हुआ कि आज तक मैंने इतने पण्डितों का सत्कार कर राज सभा में रक्खा पर आज एक विदेश का पण्डित इस प्रकार पाटण की राजसभा के परिणतों का पराजय कर चला जायगा।
रात्रि के समय अम्बिकादेवी ने राजा को कहा कि हे राजन् । “तू इतनी चिन्ता क्यों करता है ? इस श्लोक का अर्थ करने में तो आचार्यश्री देवसूरि समर्थ हैं।' इतना कह कर देवी अदृश्य होगई। देवी के कथनानुसार राजा ने दूसरे ही दिन देवसूरि को बड़े ही सत्कार के साथ राजसभा में बुलाया । देवसूरि ने भी राजसभा में उपस्थित होकर वादी के श्लोक का स्पष्ट अर्थ इस प्रकार किया कि
एक प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने वाला चार्वाक, प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों को स्वीकार करने वाले बौद्ध व वैशेषिक, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण को मानने वाला सांख्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, १२५६
पाटण में देवबोध का श्लोक
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