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________________ पश्चार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ -immorerror और उपमान प्रमाण को मानने वाले नैयायिक, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव रूप ६ प्रमाण को मानने वाले मीमांसक । इन छ प्रमाण वादियों को चाहने वाले मुम देवबोध के कोपायमान होने पर ब्रह्मा विष्णु और सूर्य भी मेरे बनजाते हैं अर्थात् सामने कुछ भी नहीं बोल सकते हैं तो फिर विद्वान मनुष्य जैसे सामान्य तो मेरे सामने वाद करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसप्रकार श्लोकार्थ को कह सुनाने से राजा बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। वह देवसूरि को सभाकी लाज रखने वाला परम निष्णात, मेधावी व गुरु समझ कर बहुत ही आदर सत्कार करने लगा और बादिका गर्भ गल जाने से नतमस्त होचला गया। पाटण निवासी एक बहड नाम के धनी भक्त ने सूरिजी से पूछा कि-भगवन् मुझे कुछ धन-व्यय करने का है सो वह किस कार्य में किया जाय ? इस पर सूरिजी ने उसे जिन मन्दिर बनाने की सलाह दी। बहड़ ने भी गुर्वाज्ञा को शिरोधार्य कर मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया । चतुर, शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाकर एक विशाल मन्दिर बनवाया। मन्दिर में स्थापन करने के लिये चरम तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वामी की मूर्ति बनवाई । प्रतिमाजी के नेत्रों के स्थान ऐसी मणिये लगवाई कि वे रात्रि में भी सूर्य की भांति सदा प्रकाश करती रहती थी । वि० सं० ११७८ में मुनिचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हुआ उसके एक वर्ष पश्चात् ही देवसूरि ने बहड के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। श्राचार्य देवसूरि पाटण से विहार कर नागपुर पधारे तो वहां का राजा आल्हदान सूरिजी के स्वागत के लिये स्वयं सन्मुख आया । अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यश्री का नगर प्रवेश महोत्सव करके उन्हें उचित सम्मान से सम्मानित किया। वहां पर देवबोध नामका वादी आया और उसने देवसूरि को प्रणाम कर एक श्लोक बोलायो बादिनो द्विजिद्वान् साटीपं विषय मान मुद्रितः शमयति सदेवसूरि-नरेन्द्रवंद्यः कथं न स्यात् ॥६६। एक समय सिद्धराज ने अपनी सेना के साथ नागपुर पर चढ़ाई करके उसको चारों ओर से घेर लिया। कुछ समय के पश्चात् जब उसने सुना कि यहां देवसूरि विराजमान हैं तो यह सोचकर उसने अपना पड़ाव हटालिया कि जहां हमारे गुरुदेव सरि विराजमान हैं; मैं उस राजा के दुर्ग को कैसे ले सकता हूँ। बस, उक्त विचारानुसार वह पाटण लौट गया पाटण पहुँचने पर सिद्धराज ने देवसूरि को आमन्त्रित कर पाटण में ही चतुर्मास करवा दिया । चतुर्मास के दीर्घ अवसर को प्राप्त करके सिद्धराज ने तत्काल नाग. पुर पर चढ़ाई की और वहां के किले पर अपना अधिकार कर लिया । एक समय करणावती श्रीसंघ ने भक्ति पूर्वक देवसूरि से प्रार्थना कर अपने यहां चतुर्मास करवाया। अचार्यश्री ने भी अरिण्टनेमि के चैत्य में व्याख्यान देकर के अनेक भव्यों को प्रतिबोध दे उनका उद्धार किया। करणाटक देश के राजा और सिद्ध सेन की माता का पिता जयकेशरी राजा का गुरु दक्षिण में रहने वाला, वादियों में चक्रवर्ती, जयपत्रिकी पद्धति को डावे पैर पर लगाने वाला, अभिमान रूपी गज और गर्व रूपी पर्वत पर आरूढ़ हुआ, जैन होने पर भी जैन मत्तद्वेषी, वर्षाकाल व्यतीत करने के लिये वासुपूज्य चैत्य में ठहरा हुआ, श्रीदेवसूरि के व्याख्यान से इर्ष्या करने वाला, कुमुदचंन्द्र नाम के दिगम्बर वादी ने चारणों को वाचाल बनाकर देवसूरि के पास भेजा। वे चारण भी कुमुदचंद्र की मिथ्या प्रशंसा करते हुए व श्वेताम्बरों को अपमान सूचक शब्द बोलते हुए कहने लगे कि-“हे श्वेताम्बरों! सर्वशास्त्र के पारगामी दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचंद्र के चरण युगलों की सेवा करके अपना कल्याण करो" इत्यादि । आचार्य देवसूरि का विहार १२५७ winninwww.inindia. inwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmonianusinneronmunnawwanimuwww.anirunt Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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