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वि० सं० ६३१ से ६६१]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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"कर्म तारी कला न्यारी हजारो नाच नचावे छ ।
घड़ी मां तू हंसावे ने घड़ी मां तू रडावे छे ॥" आज उक्त पद का श्रासल सक्रिय अनुभव कर रहा था। रह रह कर उसे अपने पिता के समय की स्मृति हो रही थी। वे आनंद के दिन उससे भूले नहीं गये थे किन्तु, धर्म का दृढ़ श्रद्धालु प्रासल, इस दुःख काल में भी अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक अपनी जीवन यात्रा-यापन कर रहा था।
ठीक उसी समय सिंधधरा को पावन बनाते हुए श्राचार्य देवगुप्तसूरिजी क्रमशः मालपुर में पधार गये । श्रीसंघने आचार्य देव का यथा योग्य नगर प्रवेशादि महोत्सवों से शानदार स्वागत किया। श्रीसूरीश्वरजी के पधारने से प्रासल की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं रहा । वह जानता था कि प्राचार्यमा के पधारने से मेरा भवशिष्ठ समय जो सांसारिक दुःखमय द्वन्द्वों के विचारने में व्यतीत होता है-शान्ति से धर्माराधन कार्यों में व्यतीत होता रहेगा। दूसरी बात उत्कृष्ट संयम के पालक त्यागी वैरागी योगियों के दर्शनोका लाभ भी पूर्व संचित सुकृत के उदय से प्राप्त होता रहेगा । साधु लोग दीनोद्धारक करुण निधान, एवं दया के साक्षात् अवतार स्वरूप होते हैं अतः, उनके चरणों की सेवा से पूर्वजन्मोपार्जित दुष्कर्मों का भी प्रक्षालन होता रहेगा। बस इन सब बातों का विचार करते ही उसके हृदय में सहसा नवीन प्रतिभा जन्य अलोकिक शक्ति का प्रादुर्भाव होगया। इस तरह अनेक विचार करता हुआ आसल आचार्यश्री के नगर प्रवेश महोत्सव में सम्मिलित हुआ और प्राचार्यश्री के चरण रज का स्पर्श कर आसल ने अपने जीवन को कृत कृत्य किया।
. आचार्यश्री का अमृत मय व्याख्यान हमेशा होता था। एक दिन भाचार्यश्री ने संसार की विचित्रता एवं मनुष्य जन्म की दुर्लभता बतलाते हुए फरमाया कि
"समावन्नाण संसारे, नाणागोत्तासु जाइसु । कम्मानाणा विहाकट्ट, पुढो विस्संभयापया ॥१॥ एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छई ॥२॥ एगया खत्तिओ होई, तओ चण्डालयोकसो । तओकीड पयंगोय, तओ कुन्थु पिवीलिया ॥३॥ एवमावडजोणीसु, पाणिणो कम्माकिदिवसा । ननिविजंतिसंसारे, सवठेसुय खात्तिया ॥४॥ कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणु सासुजोणिसु, विणिहम्मान्ति पाणिणो ॥५॥ कम्माणंतु पहाणाए, आणुपूचि कयइवि । जीवासोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥६॥ ____ इस प्रकार अत्यन्त दुर्लभता से मिले हुए सुर दुर्लभ मानव देह को कौटुम्बिक प्रपञ्चों में, सांसारिक पौद्गलिक मोहक पदार्थों में, पारस्परिक स्वभावविभेद जन्य कलह में व्यतीत कर देना मेधावियों के लिये शोभास्पद नहीं है याद रक्खो इस समय का सदुपयोग किये बिना हमको भविष्य में बहुत ही पछताना पड़ेगा। जैसे एक मूर्ख को यकायक रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु उसके महत्व व मूल्य से अनभिज्ञ उस पागल ने उस रत्न को खेत के धान्य को खाने के लिये पाये हुए पक्षियों को उड़ाने में कक्कर की तरह उपयोग किया है उसके मूल्य की वास्तविकता को जानने पर उसे जैसा पश्चाताप हुआ उससे भी अनन्त गुना ज्यादा शोक निर्दय-कराल काल के मुख में पड़े हुए जीव को होता है अतः प्राप्त समय का सदुपयोग कर जब तक इन्द्रियों की शक्तियां नष्ट न होवे तब तक धर्म का आचरण करके अपने जीवन को सार्थक बना लेना मनीषियों की बुद्धिमता है । "जाव इंदिया न हायंति ताव धम्म समायरे।
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सूरिजी का मालपुरा में व्याख्यान
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