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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०३१ से १०६० पौत्रादिक विशाल फुटुम्ब था पर, घर के कार्य को सम्भालने के लिये स्तम्भवत् प्राधार भूत, चक्षु अवलम्बन देने वाला आसल नामका पुत्र था। शाह देवा ने व्यापारिक क्षेत्र में प्रवृत्ति कर बहुत द्रव्योपार्जन किया था और समयानुकूल उस द्रव्य का शास्त्रवर्णित सप्तक्षेत्रों में सदुपयोग कर पुण्य सम्पादन भी किया था । मालपुर में चरमतीर्थकर, शासननायक भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर का निर्माण कर आचार्यश्री के हाथों से मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई सम्मेत शिखरादि पूर्व, तथा शत्रुञ्जय गिरनारादि दक्षिण के तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल कर, संघपति के पदपर आसीन हो तीर्थ यात्रा का अनन्त पुण्य सम्पादन क ने के लिये भी भाग्यशाली बना था। पूजा, प्रभावना स्वामीवात्सल्यादि धार्मिक क्रियाएं तो आपकी साधारण क्रियाओं के अन्तर्गत थी । जब शाह देदा का देहान्त हुआ तब आप अखूट लक्ष्मी अपने पुत्र श्रासल के लिये जमा छोड़ गये । पर--- ___पूतसपूत तो क्यों धन संचय, पूतकपूत तो क्यों धन सञ्चय" लक्ष्मी की भी अवधि होती है । इसका स्वभाव चंचल एवं कच्चे रंग की तरह क्षणभङ्गुर है जब तक पुण्य राशि की प्रबलता रहती है तब तक सर्व प्रकार के सुखोपभोग के पौद्गलिक साधन अपना अस्तित्व कायम रखते हुए मनुष्य के स्वभाव एवं रहन सहन में अलौकिक विचित्रता का प्रादुर्भाव कर देते हैं किन्तु, पुण्य सामग्री के समाप्त होते ही पुण्य के साथ ही साथ सब उपलब्ध साधन भी अदृश्य-लुप्त हो जाते हैं । बस यही हाल देदा के सुपुत्र श्रासल का भी हुआ। शा. देदा के द्वारा संचित किया हुश्रा द्रव्य आसल के तकदीर में नहीं था । शा. देदा के बाद लक्ष्मी भी न जाने आसल से क्यों अप्रसन्न होगई ? देखते २ लक्ष्मी ने अपना किनारा लेना प्रारम्भ कर दिया। जिस लक्ष्मी को एकत्रित करने में कई वर्ष व्यतीत हुए थे वही लक्ष्मी आज क्षणभर में श्रासल के घर से बिदा होगई । बास्तव में इसकी अनित्यता को जानकर के ही तीर्थकों ने शाश्वत सुख प्राप्ति के लिये धर्म को ही मुख्य एवं श्रेयस्कर साधन बताया है । इस तरह पुण्यं के प्रभाव से आसल क्रमशः घर खर्च चलाने में भी असमर्थ बनगया। जैसे तैसे बड़ी ही मुश्किल से बिचाग घर का गुजारा चलाने लगा। जिसके घरों से संघ जैसे वृहद् कार्य व मन्दिर जैसे परम पवित्र कार्य हुए आज बही कोटाधीश पूर्व जन्मोपार्जित पापकर्म के उदय से लक्षाधीश के बदले रक्षाधीश बनगया । दरिद्रता के इतने विकट प्रवाह में प्रवाहित होते हुए भी आसल ने अपनी धर्मक्रिया में किचित् भी न्यूनता न आने दी। वह तो इस दारूण परिस्थिति में और भी अधिक मनन पूर्वक परमात्मा का नाम स्मरण करने लगा। ज्यों २ व्यापारिक स्थिति की कमजोरी के कारण, समय मिलता गया त्यों २ वह अपने नित्य नियमादि-नित्यनैमेत्तिक-कृत्यों में भी वृद्धि करता गया । श्रासल जैन दर्शन के कर्मवाद सिद्धान्त का अच्छा ज्ञानी था । वह जानता था कि ये सब पौद्गलिक पदार्थ तहन निस्सार एवं क्षण विनाशी हैं। संसार, शुभाशुभ संचित कर्मों का नाटक है । जब तक मेरे पुण्य का उदय था मैं परम सुखी था । आज पाप के उदय से ही मुझे धनाभाव जन्य कष्ट का मुकाबिला करना पड़ रहा है । आज दुःख है तो, पुण्योदय से पुःन सुख का दिवस भी उपलब्ध होगा। इस तरह कर्म के विचित्र इतिहास का एवं कर्म की करता से प्राप्त हुए अनेक महापुरुषों के जीवन के कष्टों का स्मरण करते हुए वह इस दुःखमय जीवन को भी क्षण मात्र लिये सुखमय बना रहा था । वास्तव में शाह आसल का असह्य समय १०४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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