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आचार्य सिद्धरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १०३१-१०६०
कहा है – “धर्मरहित चक्रवर्ती की समृद्धियां भी निकम्मी है और धर्म सहित निर्धनता जन्य आपत्तियां भी अच्छी है ।" इस लोकोक्तिमें शब्द तो अगम्य रहस्य भरा हुआ है । कारण, धर्म रहित मनुष्य को पूर्व सुकृतोदय से धन जनादि पदार्थ प्राप्त होगये तो वह उनका उपयोग कर्मबन्धन मागों में ही करेगा । एशआराम व पोद्गलिक सुखों तक प्रयत्न कराने में सहायक होगा । द्रव्य का क्षणिक भोग विलासों में दुरुपयोग कर नाचितकर्मों का बंधन करेगा अतः धर्म रहित मनुष्य की समृद्धियां भी भविष्य के लिए खतरनाक दुर्गति दायक होती है । इसके विपरित धार्मिक भावना से ओतप्रोत निर्धन धनाभाव के कारण दरिद्र व्यक्ति का जीवन धर्म भावनाओं की प्रबलता से पूर्वोपार्जित दुष्कमों की निर्जरा का हेतु और भविष्य के पातक बंधन का बाधक होगा । वह कर्म फिलोसॉफी का अभ्यासी जीव निर्धनताजन्य दुःखों में भी कर्मों की विचित्रता का स्मर कर शान्ति का अनन्योपासक रहेगा । यावत् उसकी निर्धनता भी कर्म निर्जरा का कारण बन जायगी । अतः मनुष्य के जीवन की मुख्य सामग्री धन नहीं किन्तु - घर्म है । इसकी आराधना से ही जीव इस लोक और परलोक में परम सुखी हुआ है और होगा । इस प्रकार सूरिजी ने कर्मों कि विचित्रता एवं धर्म की महत्ता के विषय में लम्बा चौड़ा सारगर्मित, उपदेशप्रद प्रभावोत्पादक वक्तृत्त्व दिया। इसका उपस्थित जन समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा ।
व्याख्यान में शा . श्रासन भी विद्यमान था । उसने सूरीश्वरजी के एक एक वाक्य को यावत् अक्षर को बहुत ही एकाचित्त से श्रवण किया उसको ऐसा श्राभास होने लगा कि मनो आचार्यश्री ने खास मेरे लिये ही कर्म की फिलोसॉफी को प्रकाशित की है। क्षण भर लिये आसल के नेत्रों के सामने बाल्य काल से लगाकर के आज तक के इतिहास का चित्र, सुख दुःख का स्मरण धन की अधिकता एवं निर्धनता की क्रूरता
की त्यों अंकित हो गई। सूरिजी का कथन उसे, सौलह आना सत्य ज्ञात होने लगा । वह विचारने लगा कि अवश्य ही मैंने पूर्व जन्म में धर्म के प्रति उदासिनता - उपेक्षा दृष्टि रक्खी। धर्म मय जीवन बिताने वालों को कष्ट दिया। उन्हें तरह तरह की अंतराय देकर ऐसे निकाचित कर्मों का बंध किया है कि आज प्रत्यक्ष हो उसके कटु फलों का मैं आस्वादन कर रहा हूँ। निर्धनता जन्य दुखों को भोग रहा हुँ । अस्तु, एक समय शा. आसल सूरीजी की सेवा में हाजिर हुआ और वंदन करके बैठ गया । सूरिजी जानते थे कि श्रासन के पिता परम धर्म परायण व्यक्ति थे । उन्होंने लाखों रुपया व्यय करके धर्म कार्यों कर पुराय सम्पादन किया । धार्मिक पिता का पुत्र आसल भी धर्म के रंग में रंगा हुआ ही होना चाहिये श्रतः श्राचार्य श्री, असल को अमृतमय वाणी द्वारा संसार की असारता के विषय उपदेश दिया जिसकों सुनकर श्रासल ने कहा- भगवान् ! मेरा दिल संसार से तो सर्वथा विरक्त हैं । यदि मैं, मेरे निर्धारित कार्य को करलूं तो जनता मेरी निर्धनता के साथ धर्म की भी अवहेलना करने लग जायगी । धर्म व साधुत्व वृत्ति उनके लिये साधारण व्यक्तियों का आश्रय स्थान बन जायगी । । सब लोगों के हृदय में भावनाएं जागृत होजायेंगी कि दारिद्रयजन्य कष्टों से पीड़ित हौ कमाने में असमर्थ असल ने साधुत्व वृत्तिको स्वीकार कर अपने आपको निर्धनता के दुःख से मुक्त किया । भगवन् ! इन अपवाद मय शब्दों में धर्मावहेलना का भी रहस्य प्रच्छन्न है जिसका स्मरण कर दीक्षा के लिये उद्यत मेरा मन मुझे पुनः आगे बढ़ाने के बजाय पीछे कीर खेंच रहा है । पूज्यवर ! यदि मैं पुन पूर्ववत् स्थिति को प्राप्त होजाऊं तो शीघ्र ही संसार को तिलाञ्जली देकर प्रापके करकमलों में एवं आपकी सेवा में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करलूं ।
आचार्यश्री का व्याख्यान
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