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वि० सं० ६३१-६६०]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सूरिजी ने कहा-श्रासल ! एक ही भव में कमों की विचित्रता के कारण मनुष्य अनेक परिस्थितियों का अनुभव करता है । कभी सुकृतपुब्ज से यकायक राजा बन जाता है तो दूसरे ही क्षण पापोदय से घर २ के टुकड़े की याचना करने वाला याचक बन जाता है । राजा हरिश्चंद्र, मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जैसे नरेशों एवं महावीर जैसे तीर्थंकरों को भी इस कर्म ने नहीं छोड़ा तो हम तुम जैसे साधारण व्यक्तियों के लिये तो कहना ही क्या ? ये तो अपने हाथों के किये हुए ही शुभाशुभ कर्म हैं। इसमें किंचित मात्र भी आर्तध्यान न करते हुए धर्म मार्ग की आराधना करते रहना ही श्रेयस्कर है। अब रही आत्म कल्याण की बात सो श्रात्म कल्याण, संसारावस्थ को त्याग कर साधुत्व वृत्ति को स्वीकार करने में ही नहीं पर गृहस्थावस्था में रहते हुए भी हो सकता है । हाँ दीक्षा की उत्कृष्ट भावना रखनी एवं समयानुकूल दीक्षा को अङ्गीकृत कर शीघ्र श्रात्म कल्याण करना तो श्रावश्यक है ही पर दीक्षा की भावना को भावते हुए सांसारिक अवस्था में भी बनते प्रयत्न निवृत्ति मार्ग का अश्रय लेते रहना चाहिये । आसल ! कई एक व्यक्ति तो ऐसे भी देखे गये कि वे निर्धनावस्था में जितना धर्माराधन कर आत्म श्रेय सम्पादन कर सकते हैं, उतना धनिकावस्था में नहीं कर सकते हैं। उनके पीछे उस समय इतनी उपाधियां लग जाती हैं कि वे धर्म कर्म को सर्वथा विसर जाते हैं । निर्धनावस्था में की हुई प्रतिज्ञाओं का पालन उनके लिये विचारणीय हो जाता है उदाहरणार्थ-एक निर्धन मनुष्य थोड़े बहुत परिश्रम से अपना गुजारा करते हुए पाठ घंटा हमेशा धर्म सम्पादन करने में व्यतीत करता था । किसी समय पुण्योदय से एक सिद्ध पुरुष उसको मिलगया। निर्धन ने उस सिद्ध पुरुष की तन, मन, एवं शक्यनुकूल धन से बहुत ही सेवा भक्ति की । उसकी भक्ति से प्रसन्न हो सिद्ध पुरुष ने पूछा-भक्त ! तेरे पास कितना द्रव्य है ? उसको कहते हुए शरम आई अतः हाथ पर १) आंक लिख कर सिद्ध पुरुष के सामने रक्खा । सिद्ध पुरुष को भक्त की निर्धनता पर बहुत ही करुणा उत्पन्न हुई उसने १) पर बिंदी लगादी जिससे कुछ ही दिनों में निधन के पास इस रुपये हो गये । जब वह निर्धन एक रुपये का किराणा लाकर बाजार में बेचने जाता था उस समय उसको पूजा, सामायिका दि धार्मिक कृत्य करने के लिये बहुत समय मिलता था अब दश रुपयों का माल लेकर आस पास के प्रामों में बेचने को जाने लगा तो उसे आठ घंटे के बजाय छ घंटे ही धर्म-कार्य के लिये मिलने लगे । पर जो परिणामों को स्थिरता एवं पवित्रता आठ घंटे धर्म ध्यान करते समय थीं वह इन छ घंटों के अल्प समय में न रह सकी। उसके हृदय में लोभ ने प्रवेश कर लिया। वह विचारने लगा कि यदि सिद्ध पुरुष एक शून्य की और कृपा कर दे तो प्रामों में बेचने जाने की तकलीफ का अनुभव नहीं करना पड़े और यहां पर ही छोटी मोटी दुकान करके बैठ जाउं । बस उक्त विचार से प्रेरित हो वह पुनः सिद्ध पुरुष के पास गया। सिद्ध पुरुष ने भी दयावश एक शून्य और लगा दी निर्धन के पास अब १००) होगये ।
क्रमशः निर्धन ने दुकान कर ली पर इसका नतीजा यह हुआ कि दुकान पर बैठते हुए ग्राहक की राह देखने में धर्म ध्यान निमित्त रक्खे हुए छ घंटो में से दो घंटे और भी कम हो गये । इसकी इसको बहुत चिंता हुई अतः समय पाकर पुनः सिद्ध पुरुष के पास गया और प्रार्थना की कि भगवन् ! एक विंदी और लगादें तो घड़ीहो कपा होगी । दयालु सिद्ध पुरुषने भी एक बिन्दी और लगा दी जिससे सेठ के पास १०००) होगये । अब तो सेठ ने एक नौकर और रख लिया । व्यापार, धंधा बड़े जोर से चलने लग गया । देशावरों से माल मंगाना बेचना प्रारम्भ कर दिया पर इससे धर्म के कार्य के चार घंटे में से दो घंटा का समय भी मुश्किल से मिलने लगा। उस धर्म कार्य के समय को बढ़ाने के लिये सेठ ने बहुत से उपाय सोचे पर, सबके सब उपाय
सिद्ध पुरुष की बिंदिया
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