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________________ वि० सं० १०७४- ११०८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास त्रित किया पर मथुरा के जैन भी इतने कमजोर नहीं थे जो उनकी शृगा भकियों के सहज ही में डर जावें । आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज का विराजना तो निश्चित हा उनके उत्सव था । अतः उन्होंने निशंक उनके पत्र को स्वीकार कर लिया । बेचारे वादियों के पास जैन ईश्वर एवं वेद को नहीं मानने वाला एक नास्तिक मत है । परपरागत इस मिथ्या प्रलाप के सिवाय और बोलने का ही क्या था ? पर आचार्य कक्कसूरि ने सभा के बीच प्रबल प्रमाणों और अकाट्य युक्तियों द्वारा यह साबित कर बतलाया कि जैन कट्टर आस्तिक एवं सच्चिदानंद वीतराग सर्वज्ञ को मानने वाले ईश्वर भक्त हैं। पर सृष्टि का कर्ता, हर्ता एवं जीवों के पाप पुण्य के फल को देने दिलाने वाला नहीं मानते हैं। इस प्रकार न मानना भी युक्ति सङ्गत एवं प्रमाणोपेत है। असली वेदों को मानने के लिये तो जैन इन्कार करते ही नहीं हैं और पशु हिंसा रूप वेदों को मानने के लिये जैन तो क्या पर समझदार अजैन भी तैय्यार नहीं हैं। आचार्यश्री के प्रमाणों से सकल जनता हर्षित हो जय ध्वनि बोलती हुई विसर्जित होगई । इस तरह शास्त्रार्थ में विजयमाला जैनियों के कण्ठ में ही शोभायमान हुई। जैनधर्म का तो इतना प्रभाव बढ़ा कि कई जैन व्यक्तियों ने प्राचार्यश्री की सेवा में जैनधर्म को स्वीकार कर परम्परा के मिध्यात्व का त्याग किया । / एक दिन सूरिजी ने तीर्थंकरों की निर्धारण भूमि का महत्व बताते हुए पूर्व-प्रान्त स्थित सम्मेतशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी के रूप २२ तीर्थंकरों की निर्वाण भूमिका प्रभावोत्पादक वर्णन किया। जन समुदाय पर आपके ओजस्वी व्याख्यान का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । परिणामस्वरूप वप्पनाग गौत्रीय नाहटा शाखा के सुश्रावक श्री आसल ने आचार्यश्री के उपदेश से प्रभावित हो चतुर्विध संघ के सम्मुख प्रार्थना की कि मेरी इच्छा पूर्व प्रान्तीय तीर्थों के यात्रार्थ संघ निकालने की है। यदि श्रीसंघ मुझे आदेश प्रदान करे तो मैं अत्यन्त कृतज्ञ होऊगा । श्रीसंघ ने भी सहर्ष धन्यवाद के साथ आसल को संघ निकालने के लिये आज्ञा प्रदान करदी | श्रीसंघ के आदेश को प्राप्तकर आसल ने सब तरह की तैय्यारियां करना प्रारम्भ कर दिया। सुदूर प्रान्तों में आमंत्रण पत्रिकाएं भेजी व मुनिराजों की प्रार्थना के लिये स्थान २ पर मनुष्यों को भेजा । निर्दिष्ट तिथि पर संघ में जाने के इच्छुक व्यक्ति निर्दिष स्थान पर एकत्रित हो गये । वि० सं० १०८६ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन सूरिजी की नायकता और आसल के संघपतित्व में संघ ने तीर्थयात्रार्थ प्रस्थान किया । मार्ग के तीर्थस्थानों की यात्रा करता हुआ संघ क्रमशः सम्मेतशिखर पहुँचा । बीस तीर्थंकरों के चरण कमलों की सेवा पूजा यात्रा कर सब ने अपना अहोभाग्य समझा। वहां पर पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य अष्टान्हिका महोत्सव एवं ध्वजारोहण प्रभावना, सुकृतोपार्जक कार्य कर अक्षय पुण्य राशि का अर्जन किया । पश्चात् वहां से बिहार कर संघने चम्पापुरी और पावापुरी की यात्रा की। राजगृह आदि विशाल क्षेत्रों का स्पर्शन कर संघ ने कलिंग की ओर प्रस्थान किया। वहां कुमार, कुमरी ( शत्रुञ्जय, गिरनार ) अवतार की यात्रा की। इस प्रकार अनेकों तीर्थ स्थानों की यात्रा के पश्चात् आचार्य कक्कसूरि ने अपने मुनियों के साथ पूर्व की ओर विहार किया । आचार्य सर्वदेवसूरि के अध्यक्षत्व में संघ पुनः मथुरा पहुँच गया। इधर सूरिजी का पूर्वीय प्रान्तों की ओर परिभ्रमन होने से जैनधर्म का काफी उद्योत एवं प्रचार हुआ । आचार्यश्री का एक चतुर्मास पाटलीपुत्र में पश्चात् समेत शिखरजी की यात्रा कर आप आस पास के प्रदेशों में धर्मोपदेश करते हुए वहीं पर परि १ इस लेख से पाया जाता है कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी पर्यन्त सो पूर्व की ओर व कलिंग प्रान्त में जैनियों की पर्याप्त आबादी थी। कलिंग देश की उदयगिरि खण्डगिरि पहाड़ियों पर प्राप्त विक्रम की दसवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के शिलालेखों से पाया जाता है कि विक्रमी दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी पर्यन्त जैनियों का अस्तित्व रहा है | इतना हो क्यों पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में कलिङ्ग देश पर सूर्यवंशीय प्रतापरुद्र नामक जैन राजा का शासन था। जब राजा ही स्वयं जैन था तब थोड़े बहुत परिमाण में प्रजा जैन हो, यह तो प्रकृति सिद्ध-स्वाभाविक ही है । १४४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only मथुरा से सम्मेत शिखर का संघ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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