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________________ प्राचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४७४-१५०८ mmmmmm or mox ur १ इस जाति के उदार नररत्नों ने ८७ जिन मन्दिर बनवाये । २ इस जाति के कार्य परायण महानुभावों ने १६ पार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाले । , ३७ ,, संघ को अपने यहां बुलाकर संघ पूजा की। " , ७, दुष्काल में शत्रुकार दिये । , ५, तीन तालाब और दो कुए खुदवाये । ६ इस जाति के २२ शूरवीर युद्ध में काम श्राये और साथ में महिलाएं सती हुई। इसके सिवाय अन्य भी कई छोटे मोटे परमार्थ के कार्य किये जिनका ग्रन्थ विस्तार भय से विशेष वर्णन नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार आचार्यश्री ने आठ वर्ष पर्यन्त मरुधर प्रान्त में लगातार विहार करके जैनधर्म का पर्याप्त उद्योत किया। अजैनों को जैन बना कर ओसवंश में सम्मिलित करना तो आपश्री के पूर्वजों से ही चला आया था। अतः आप उनके मार्ग का अनुसरण करने में पीछे कैसे रहने वाले थे ? एक समय उपकेशपुर में विराजते हु। आपको विचार आया कि मरुधर प्रान्त में विचरण करते हुए तो पर्याप्त समय होगया है। अतः किन्हीं दूसरे प्रा-तों में धर्म प्रचारार्थ विचरण करना चाहिये । पर किन प्रान्तों में विहार करना यह उनके लिये विचारणीय या निर्णय का प्रश्न बन गया था। इतने में देवी सच्चायिका ने परोक्षपने श्राचार्यश्री के निवास स्थान पर प्रवेश कर वंदन किया । सूरिजी ने भी देवी को धर्मलाभ रूप आशीर्वाद दिया। आचार्यश्री के मनोगत भावों को अवधिज्ञान के द्वारा जानकर देवी ने स्वयमेव कहा-पूज्यवर ! श्राप मेदपाट प्रान्त से ही अपना विहार क्षेत्र प्राराम कीजिये । निश्चित् ही आपको समय २ पर अच्छा लाभ होगा । सूरिजी ने भी देवी के वचनों को हृदयङ्गम करते हुए कहा-देवीजी ! आपने ठीक मौके पर आकर मुझे सलाह दी है। इस तरह शासन सम्बन्धी कुछ और वार्तालाप करके देवी अदृश्य होगई । सूरिजी ने भी अपना विहार मेदपाट की ओर करना निश्चित किया ! क्रमशः शुभ मुहूर्त में ५०० मुनियों के साथ विहार भी कर दिया। पट्टापली निर्माताओं ने आपके विहार का वर्णन भी अन्यान्य वर्णनों के साथ विस्तारपूर्वक किया है । यहां इस वर्णन को इतना विशद रूप न देकर इतना ही लिखना पर्याप्त है कि आपने १०८४ का चतुर्मास आघाट नगर १०८५ का चतुर्मास चित्रकूट में, १०८६ का उज्जैन में, १०८७ का चंदेरी में चतुर्मास किया। वहां पर सर्वत्र धर्मोद्योत करते हुए श्राप मथुरा पधारे। उस समय वहां पर कोरंट गच्छाचार्य सर्वदेवसूरिजी विराजमान थे। श्राचार्य सर्वदेव सूरी और सकल श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया। उस समय कोरंटगच्छाचार्यों का विहार क्षेत्र मथुरा भी प्रमुख रूप से बन गया था। मथुरा में कोरंट गच्छीय मुनियों का श्रावागमन प्रायः प्रारम्भ ही था। उनसे यह क्षेत्र कदाचित् ही खाली रहता । इसी कोरंट गच्छ में एक माथुरी शाखा थी। इस शाखा का प्रादुर्भाव आचार्य नन्नप्रभसूरि से हुआ था। इस शाखा के प्राचार्यों के भी ये ही तीन नाम होते थे जैसे-नन्नप्रभसूरि, ककसूरि और सर्वदेवसूरि जिस समय हमारे चरित्रनायक आचार्य ककसूरिजी महाराज मथुरा में पधारे उस समय माथुरी शाखा के सर्वदेवसूरि वहां विराजमान थे। उनके तथा तत्रस्थ श्रीसंघ के अत्याग्रह से हमारे चरित्रनायकजी का वह चातुर्मास मथुख में ही होगया । उस समय मथुरा में बौद्धों का कोई प्रभाव नहीं था पर बौद्ध भिक्षु यत्र तत्र स्वल्प संख्या में अपने मठों में रहते थे। वैदान्तिकों का प्रचार कार्य अवश्य बढ़ता जारहा था पर जैनियों की आबादी पर्याप्त होने से उन पर वह अपना किश्चित् भी प्रभाव न डाल सका। आचार्यश्री के विराजने से तो सबका उत्साह और भी बढ़ गया था। सूरिजी की प्रभावोत्पादक व्याख्यान शैली जन समाज को मन्त्र मुग्ध बना कर उन्हें अपने कर्तव्य मार्ग की ओर अग्रसर करने में परम सहायक हो रही थी। इतर धर्मावलम्बियों को जैनियों का उक्त प्रभाव कैसे अच्छा लगने वाला था ? अतः उन्होंने कई प्रकार के मिथ्या आक्षेप कर अपने पाण्डित्य के अहमत्व में उन्हें शास्त्रार्थ के लिये प्रामविहार का विचार और देवी की सम्मति amawwwmwww. maawaranwaroo Jain Educauen internatoria "For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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