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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
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१०–प्रक्षेप घर मंडप के आगे २०८ स्तूप आये हैं । ११ - स्तूपों के चारों ओर जिन प्रतिमाएं ८१६ हैं - स्तूपों के आगे चबूतरों पर २०८ चैत्यवृक्ष हैं । १३ - चैत्यवृक्ष के आगे चबूतरों पर २०८ इन्द्रध्वजें है । १४ - इन्द्रध्वजें के आगे २०८ पुष्करणी वापियाँ हैं ।
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१५ - वापियों के आगे २०८ सुन्दर बन खण्ड हैं ।
१६–बनखण्ण्डों के अन्दर देवताओं के बैठने के गौल एवं चौखुने चबूतरे हैं।
इस प्रकार मुनि सोमसुन्दर के मुंह से नन्दीश्वर द्वीप का वर्णन सुनकर चतुर्विध श्रीसंघ ने मुनिजी की यात्रा का साधर्य अनुमोदन किया और अपने जीवन को कृतार्थ समझा और शास्त्र कथित नन्दीश्वर द्वीप पर विशेष श्रद्धा सम्पन्न बने ।
मुनि सोमसुन्दर ने अपनी प्रतिभा का जनता पर अच्छा प्रभाव डाला इतना ही क्यों पर मुनि सोमसुन्दर ने इधर उधर भ्रमण कर कइ दश हजार जनता को जैनधर्म की दीक्षा देकर महाजन संघ में वृद्धि की । देवादि की सहायता से केवल एक सोमसुन्दर मुनि ने ही ऐसे तीर्थों की यात्रा की हो ऐसी बात नहीं है पर और भी कई महात्माओं ने देवादि की मदद से तीर्थों की यात्रादि कर शुभ कार्य किये हैं जैसे आचार्य सूर की की यात्रा का वर्णन हम पहले कर आये हैं तथा आचार्य यशोभद्रसूरि का चमत्कारी ना पूर्व जीवन प्रसंगोपात यहां लिख देते हैं जिससे जैनधर्म की महान् प्रभावना हुइ थी ।
[ सवाल सं० १४११-१४३३
भगवान् महावीर की संतान के ८४ गच्छ हुए कहे जाते हैं यदि शुरु से संख्या लगाई जाय तो गच्छों की संख्या तीन सौ अधिक मिलेगी। पर प्रचलित शब्द ८४ का ही चला आता है। खैर, उन गच्छों में संदेश (व) गच्छ भी एक प्राचीन गच्छ है इस गच्छ में भी बड़े २ प्रभाविक आचार्य हुए हैं और उन्होंने जैन शासन की प्रभावना के साथ कई अजैनों को जैन बनाया महाजन संघ की खूब ही वृद्धि की थी इस गच्छ के आचार्यों की परम्परा भी ईश्वरसूरि, यशोभद्रसूरि, शालिभद्रसूरि, सुमतिसूरि और शांतिसूरि इन पांच नामों से ही क्रमशः परम्परा चली आ रही है जैसे उपकेशगच्छ एवं कोरंटगच्छ तथा पल्लीवालादि गच्छ में प्रवृत्ति थी । यों तो इस गच्छ में बहुत प्रभाविक आचार्य हुए थे पर यहां पर तो मैं एक यशोभद्रसूरि के विषय में ही कुछ लिखूंगा ।
चार्य शोभद्रसूरि का जन्म मारवाड़ के पलासी नाम के ग्राम में प्राग्वट वंशभूषण शाह पून्यसार के गृहदेवी गुणसुंदरी की पवित्र कुक्षि से वि० सं० ६५७ तथा एक पट्टावली में ६४७ वर्षे आपका जन्म हुआ था । उस होनहार पुत्र का नाम सौधर्म रखा था । और सौधर्म की दीक्षा अति बाल्यावस्था में हुई थी और इस दीक्षा का एक ऐसा चमत्कारी कारण बताया गया है कि:
सांढेराव गच्छ के आचार्य ईश्वरसूरि अपने ५०० मुनियों के परिवार में बिहार कर रहे थे पर आपके पीछे पट्टधर योग्य कोई साधु उनके लब में नहीं याये तब वे एक समय मुडारा ग्राम में आये और वहां पर दरीदेवी की आराधना की जिससे देवी आई सूरिजी ने उसे अपने पात्र में उतारली जब देवी जाने लगी तो सूरिजी ने साग्रह उससे पूछा कि देवी ! क्या मेरा गच्छ विच्छेद होगा या कोई योग्य पुरुष मिलेगा ? देवी ने कहा पलासी का प्राग्वट पून्यसार गुणसुन्दरी का पुत्र सौधर्म छोटी अवस्था में पाठशाला में पढ़ता था और वहां एक ब्राह्मण का लड़का भी पढ़ता था । एक दिन सौधर्म ने ब्राह्मण लड़के से दुवातियां मांगा ब्राह्मण बालक ने अपना दुवातिया सौधर्म को दिया पर असावधानी से भूमि पर गिरने से वह फूट गया बाद में ब्राह्मण बालक ने सौधर्म से दुवातिया वापस मांगा तो बदले में अच्छे-अच्छे दुवातिये देने लगा पर ब्राह्मण बालक ने इट पकड़ ली कि मेरा दुवातिया हो मैं लूंगा । इस पर आपस में बहुत खेंचाताणी हो गई जिससे
आचार्य यशोभद्रसूरि का जीवन
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