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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यक्ष कर्दम:--चंदन १ केसर २ अगर ३ बरास ४ कस्तूरी ५ मरचककोसु ६ गोरोचन ७ हिंगलोक ८ रतजणी ९ सोनेरी वरक १० और अंबर ११ इन ग्यारह सुगंधी द्रव्यों के मिश्रण से यक्षकर्दम स्याही बनती है । इन स्याहियों के सिवाय चित्र कार्यों में पीली स्याही के लिये हड़ताल सफेद के लिये सफेदश तथा हरा रंग भी बनाया जाता था। वर्तमान में कल्पसूत्र आदि में उक्त स्याही के चित्र पाये जाते हैं । दवातः - स्याही रखने के भाजन (मसि पात्र ) दवात ( खड़िया ) के नाम से प्रसिद्ध है । पहले के जमाने में मसि भाजन पीतल, ताम्र और मिट्टी के होते थे। कोई २ डिबियों में भी स्याही रखते थे । इस मसिभाजन के एक ढक्कन भी होता है तथा दवात के अन्दर एक सांकल भी डाली जाती है कि इधरउधर लाने ले जाने में और ऊपर लटकाने में सुविधा रहे । लेखनी: -- लिखने के लिये लेखनी बस (नेजा) बंश-दालचीनी, दाड़म श्रादि की बनाई जाती थी । किन्तु इसमें भी लेखनी कैसी होनी ? कितनी लम्बी होनी ? और किस प्रकार से लिखना ? इसमें भी शुभा शुभपना रहा हुआ है। तथा हि : । 1 ब्राह्मणी श्वेतवर्णा च रक्तवर्णा च क्षत्रिणी । वैश्यणी पीतवर्णा च असुरी श्याम लेखनी ॥१॥ श्वेते सुखं विजानीयात् रतै दरिद्रता भवेत् । पीते च पुष्कला लक्ष्मीः असुरी क्षय कारिणी ॥२॥ चित्ता हरते पुत्रं मधोमुखी हरते धनम् । वामे च हरते विद्यं दक्षिणा लेखनी लिखेत् ||३|| अग्रग्रन्थिहरेदायुर्मध्यग्रान्थिहरेद्धनम् । पृष्टग्रन्थिर्हरेत् सर्व निग्रन्थिलेखनी लिखेत् ॥४॥ नवल मिता श्रेष्ठ अष्टौ वा यदि वाधिका । लेखिनी लेखयेन्नित्यं धनधान्य समागमः ||५|| इनके अलावा जुजवल, प्राकार और कम्बिक भी होती थी कि जो फांटिया पाड़ने में या चित्र करने में काम आते थे । डोरा : : - ताड़ पत्र की पुस्तकों के बीच छिद्र कर दोनों और लकड़े की पट्टी लगा कर एक डोरा जिससे वे पत्र पृथक न हो सकें और क्रमशः बराबर रहें । इनके अलावा पुस्तक लिखने वाले लहिये के पास निम्न सामग्री भी रहती थी-कुपी १ कज्जल २ केश ३ कम्बल महो ४ मध्येच शुभ्रकुशं ५ । काम्बी ६ कल्म ७ कृपाणिका ८ कतरणी ९ काष्ठं १० तथा कागलं ११ कीकी १२ कोटरि १३ कलमदान १४ क्रमणे १५ कट्टि १६ स्तथा कांक १७, एते रम्यक काक्षरैश्च सहितः शास्त्रं च नित्यं लिखेत् ॥ ये सतरह ककार लेखक के पास रहने से लिखने में अच्छी सुविधा रहती है । ९५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ भ० महावीर की परम्परा www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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