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आचार्य ककसूर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ७३६-७५७
प्रभाव पड़ता है । एक समय सूरिजी महाराज ने अपने व्याख्यान में अनादि संसार का वर्णन करते हुये फरमाया कि मोह कर्म के जोर से जीव श्रनादि काल से जन्म मरण करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता श्राया है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्टौ स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम की है जिसमें गुनंतर कोड़ाकोड़ सागरोपम मिध्यात्व दशा में ही क्षय करता है जब धर्म प्राप्ती करने के योग्य द्रव्य क्षेत्र काल भाव का निमित्त कारण मिलता है. तत्पश्चात् सात प्रकृतियों का क्षय करता है जैसे
१ - - मिथ्यात्व मोहनीय - कुदेव, कुगुरु, कुधर्म पर श्रद्धा विश्वास रखना ।
२ - मिश्रमोहनीय - सुदेव, सुगुरु, सुधर्म और कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को एकसा ही मानना ।
३ - सम्यक्त्व मोहनीय-क्षायक दर्शन आने में रुकावट करना । पर दर्शन का विरोधी न हो ।
४ - अन्तानुबंधी क्रोध - जैसे पत्थर की रेखा वैसे ही जावत जीव क्रोध रखना ।
५ - अन्तानुबन्धो मान जेसे वज्र का थंभ वैसे ही जावत् जीव मान रखना ।
६- श्रन्तानुबन्धी माया -जैसे बांस की गांठ वैसे ही जावत जीव माया रखना । ७- अंतानुबंधी लोभ-जैसे किरमिची रंग वैसे ही जावत् जीव लोभ रखना |
इन सात प्रकृति का क्षय करने से दर्शन गुण ( सम्यक्त्व ) प्राप्त होता है। जब जीव को लायक
दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तो वह फिर संसार में जन्म मरण नहीं करता है। यदि किसी भव का आयुष्य नहीं बंधा हो तो उसी भव में मोक्ष जाता है किंतु आयुष्य पहिले बंध गया हो तो एक भव बंधा हुआ आयुष्य का करता है और दूसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। शास्त्र में जो तीन भव कहा है इसका कारण यह है कि यदि तिच का आयुष्य बंधा हुआ हो तो उसको तिर्यच में जाना पड़ता है और सम्यदृष्टि तिथैच सिवाय विमानीक देव के आयु बंध नहीं सकता है अतः तिर्यच से विमानीक देवता का भव करे और वहां से मनुष्य का भव कर मोक्ष जाता है। दर्शन के साथ ज्ञान चारित्र की भी आवश्यकता रहती है और इन तीनों की आराधना करने से ही जीव की मोक्ष होती है। श्री भगवतीजी सूत्र के आठवें शतक के दशवें उद्देश्य में विस्तार से उल्लेख मिलता है कि -
आराधना तीन प्रकार की होती है, ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चारित्राराधना इनके भी तीन २ भेद वतलाये हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टा - जो निम्न लिखित हैं-
-ज्ञानाराधना के तीन भेद
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१- जघन्य ज्ञानाराधना- अष्ट प्रवचन की आराधना करना । या मति श्रुति ज्ञान की आराधना करना २ - मध्यम ज्ञानाराधना - एकादशांग की आराधना करना । अवधि मनः पर्यव ज्ञान की ३ - उत्कृष्ट ज्ञानाराधना-चौदह पूर्व एवं दृष्टिवाद की श्राराधना या केवल ज्ञान की इनके अलावा ज्ञान पढ़ने में उयमापेक्षा थोड़ा परिश्रम करना यह जघन्य आराधना है मध्ममोद्यम करना यह मध्यम श्राराधना है और उत्कृष्ट --- प्रबल्य परिश्रम करना यह उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है । चाहें पूर्व भवोपार्जित ज्ञानावरिय कमोदय होने में ज्ञान नहीं चढ़ता हो पर उत्कृष्ट परिश्रम करने से ज्ञानवर्णिय कर्म का क्षय हो सकता है। जैसे एक मुनि को परिश्रम करने पर एक पद भी नहीं आसका परंतु उसने उद्यम नहीं छोड़ा अर्थात् रुचि पूर्वक उद्यम करता रहा। अंत में उसको केवल ज्ञान उत्पन्न होगया ।
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ज्ञान दर्शन चारित्री की आराधना ]
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