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वि० सं० ३३६-३५७ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
हैं तथा भविष्य में लेंगे जैनधर्म की यही तो एक विशेषता है कि द्रव्य की अपेक्षा भावकों ही विशेष स्थान दिया है इत्यादि सूरिजी के व्याख्यान का जनता पर अच्छा असर हुआ और साधर्मी भाइयों की वात्सल्यता पर विशेष भाव जागृत हुए । शाह कदर्पिने अपनी उदारता से इस शुभ कार्य में पुष्कल द्रव्य व्यय किया और सूरिजी को बन्दन कर संघ वापिस लौट कर नागपुर गया। सूरिजी कई अर्सा तक उपकेशपुर में स्थिरता कि जिससे धर्म की खुबही प्रभावना हुई । बाद वहाँ से विहार कर आस-पास के ग्रामों में भ्रमन करते हुए कोरंटपुर नगर की ओर पधार रहे थे।
उस समय कोरंट संघ में एक ऐसा विग्रह उत्पन्न हुआ था कि सरिजी के पधारने की न तो किसी ने खबर मंगाई न स्वागत ही की तैयारिये की। किंतु वहाँ पर कोरंटगच्छीय उपाध्याय मेरुशेखर विराजते थे । उन्होंने सुना कि आचार्य ककसू रिजी महाराज पधार रहे हैं। संघ को बुला कर कहा कि यह क्या बात है कि संघ निश्चित् बैठा है हाँ, साधुओं को तो इस बात की जरूरत नहीं है पर इसमें संघ की क्या शोभा है कि कक्कमूरि जैसे प्रभाविक आचार्य कृपा कर आपके नगर की ओर पधार रहे हैं जिसमें तुम्हारा कुछ भी उत्साह नहीं । यह बड़े अफसोस की बात है। संघ अग्रेश्वरों ने कहा पूज्यवर ! यहाँ एक उपकेशवंशी व्यक्ति ने राजपूत की कन्या के साथ शादी करली है जिसका विग्रह फैल रहा है । उपाध्यायजी ने कहा कि ऐसे पूज्य पुरुष के पधारने से विग्रह शांत हो जायगा अतः सूरिजी का स्वागत कर नगर-प्रवेश कराओ । उपाध्यायजी महाराज अपने शिष्यों को लेकर सूरिजी के सामने गये और श्री संघ ने भी अच्छा स्वागत किया सरिजी-भगवान महावीर के दर्शन कर उपाध्यायजी के साथ उपाश्रय पधारे । और थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी बाद सभा विसर्जन हुई। जब संघ का झगड़ा सरिजी के पास आया तो सूरिजी ने मधुर बचनों से सबको समझाया कि राजपूत की कन्या के साथ विवाह करने से आपको क्या नुकसान हुआ है । एक अजैन कन्या आपके घर में आई है आपके धर्म की आराधना करेगी और आप स्वयं राजपूत ही थे विवाहिक क्षेत्र जितना विशाल होता है उतनी ही सुविधा रहती है । जब से क्षेत्र संकुचित हुआ है तब से फायदा नहीं किन्तु नुकसान ही हुआ है अतः बिना ही कारण संघ में विप्रह डालना सिवाय कर्मबद के कुछ भी लाभ नहीं है। यदि राजपूत की पुत्री जैनधर्म का वासक्षेप लेले एवं शिक्षा दीक्षा लेकर भगवान महावीर की स्नात्र महोत्सव करने फिर तो संघ में किसी प्रकार का मतभेद नहीं रहना चाहिये ।
बस, सूरिजी का कहना दोनों पक्ष वालों ने स्वीकार कर लिया। कारण, उस समय जैनाचार्यों का संघ पर बड़ा भारी प्रभाव था । अपक्षपात से कहना सब संघ शिरोधार्य कर लेता था । कोरंट संघ में शांति हो गई । राजपूत कन्या ने सूरिजी से वासक्षेप लेकर जैनधर्म स्वीकार कर लिया और भगवान महावीर का स्नात्र महोत्सव कर अपना अहोभाग्य सममा । हां, कलिकाल ने तो श्री संघ में फूट कुसम्प के बीज बोने का प्रयत्न किया था पर आचार्य भी हाथ में दंड लेकर खड़े कदम रहने थे।
संघ में एक वरदत्त के विषय में भी मतभेद चलता था उसको भी सूरिजी ने शान्ति कर दी थी इतना ही क्यों पर वरदत्त को बड़े ही समारोह से दीक्षा देकर सूरि जी ने अपना शिष्य बना कर उसका नाम मुनि पूर्णानंद रख दिया था--यह सब सूरिजी की कार्य कुशलता एवं अपक्ष पात वृति का ही प्रभाव था।
सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा होता था। व्याख्यान एक शांति और वैराग्य का मुख्य कारण था । व्याख्यान से अनेक भावुकों का कल्याण होता है त्यागियों के व्याख्यान का जनता पर अवश्य ७६८
[ कोरंट संघ के मत्तभेद की शान्ति
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