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________________ वि० सं० ६३१-६६० ] [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास में निंदा अबहिलना करना नहीं जानते थे किसी ने किसी के विरोध में अवाज नहीं उठाई थी किसी के प्रति श्रश्रद्ध भी नहीं करवाते थे फूट कुमम्प का विष नहीं उंगला जाता था अर्थात् वे कर्म सिद्धान्त के अनु भवी थे। जिन जिन जीत्रों के जितना २ क्षयोपसम होता है वे उतना उतना ही पालन कर सकते हैं तथापि सुविहित आचार्य शिथिलाचारियों को सुविदित बनाने की कोशीश करते रहते थे । यदि किसी व्यक्ति को जबर्दस्त विवश किया जाय तो वे लोग छीप छुपकर माया कपटाइ करके अधिक कर्म बन्ध करेंगे । छातः परस्पर मिल भुल कर ही शासन सेवा करना करवाना श्रेयस्कर समझते थे यदि वे आज के साधुओं की तरह मत्सरता भाव से एक दूसरे को नीचा दीखाने की प्रवृत्ति कर डालते तो उनको उतनी सफलता मिलनी असंभव थी कि जितनी उन्होंने प्राप्त की थी इत्यादि उस समय के महामंत्र को आज हम समझले तो उन्नति हमारे से दूर नहीं है । श्राचार्य सिद्धसूरिजी म. मरुधर में भ्रमन करते हुए एक समय नारदपुरी में पधारे वहां के श्री संघ आपका अच्छा स्वागत किया एवं नगर प्रवेश का महोत्सव में पल्लीवाल ज्ञातिय शाह मेकरण ने सवालक्ष द्रव्य व्यय किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेश होता था जिसको श्रवण कर जनता बहुत श्रानन्द का अनुभव करती थी । एक समय शाह में करण पल्लीवाल ने सूरिजी से प्रार्थना की कि गुरुवर्य्य मैंने स्वर्गीय श्राचार्य देवगुप्तसूर के समीप द्वादशव्रत लिये थे जिसमें परिग्रह का प्रमाण किया था जिससे आज मेरे पास बहुत अधिक द्रव्य जमा हो गया है अब मैं उस द्रव्य को किस काम में लगाउँ कृपा कर रास्ता बतलावे ? सूरिजी ने कहा करण तु भाग्यशाली है अपने व्रतों की रक्षा के निमित द्रव्य का मोह छोड़ रहा है । इसके लिये शास्त्रकारों ने सात क्षेत्रों का निर्देश किया है पर विशेषता यह है कि जिस समय जिस क्षेत्र में अधिक जरूरत हो उस क्षेत्र में द्रव्य व्यय करना बिशेष लाभ का कारण होता है मेरा अनुभव से तो तुं तीर्थों की यात्रा संघ निकाल कर चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवाने का लाभ ले इत्यादि । सूरिजी के वचनों को करण ने तथास्तु कह कर शिराधार्य कर लिया बाद सूरिजी को वन्दन कर अपने घर पर आया और अपने पुत्रों पौत्रों को एकत्र कर सब हाल कहा कि मैं मेरे प्रमाण से अधिक द्रव्य को सूरिजी के कथनानुसार तीर्थ यात्रा संघ निकालने में लगाना चाहता हूँ इसमें तुमारी क्या इच्छा है ? पुत्रों ने कहाँ पूज्य पिताजी आपके उपार्जन किया द्रव्य श्राप अपनी इच्छानुसार व्यय करें इसमें हमारा क्या अधिकार है कि हम इस्त क्षेप करे ? हम लोग तो बड़े ही खुश है हम से बनेगा वह कार्य कर पुन्योपार्जन करेंगे आपतो अवश्य अपना निर्धारित कार्य कर पुन्य हाँसिल करावे । अहाहा कैसा जमाना था कि साधारण रकम नहीं पर लाखों करोड़ों द्रव्य पिता शुभ कार्य में लगाना चाहे जिसमें पुत्र चू तक भी न करे और उल्टा अनुमोदन करते है यह कितनी अल्पेच्छा ! कितना भव भी रुपना !! कितना निस्पृहीत्व !!! बस मैंकरण ने अपने आज्ञा कारी पुत्रों को संघ सामग्री एकत्र करने का आदेश दे दिया और संघ के लिये श्रामन्त्रण पत्रिकाए देश विदेश में तथा मुनियों के लिये भी योग्य पुरुषों को स्थान स्थान पर भेजवा दिये । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का शुभमुहूर्त निश्चय किया ठीक समय पर सेकड़ों हजारों मुनि - साध्वियों एवं लाखों श्रावक श्राविकाएँ नारदपुरी में जमा हो जाने से नारदपुरी एक यात्रा का धाम ही बन गया शाह मैं करण को संघपति पद प्रदान कर आचार्यश्री की नायकत्व में संघ प्रस्थान कर दिया रास्ता के १०५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only सरीश्वरजी का विहार www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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