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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ कालकाचार्य की घटना दूसरे कालकाचार्य के साथ जोड़ दी है । वास्तव में तो चतुर्थी को सम्वत्सरी करने वाले कालकाचार्य विक्रम के समकालीन हुए हैं पर पीछे के लेखकों ने धीरात् ९९३ वर्ष में हुए कालकाचार्य के साथ उक्त घटना को जोड़ दी है तथा आचार्य मानतुंग मल्लवादी जीवदेव हरिभद्रादि के समय में भी बहुत सा अन्तर है। इस प्रकार नामों की समानता से घटनाओं की सत्यता एक दूसरे नाम वालों के साथ अवश्य जोड़ दी गई है पर घटनाए सर्वथा असत्य नहीं है । नाम के साम्य के कारण इस प्रकार की उलझन में पड़ जाना नैसर्गिक ही था अतः ऐसी त्रुटियों के आधार पर पट्टावलियों के महान् उपयोगी साहित्य का अनादर व अवहेलना कर, अप्रमाणिक कह देना तो कर्तव्य पराड़ मुख होना ही है । पर हमारा यह फर्ज है कि ऐसी त्रुटियों के लिए अन्यान्य साधनों द्वारा घटनाओं का सम्वत निश्चित कर एतद्विषबक ठीक संशोधन करें न कि इतिहास के एक प्रामाणिक पुष्ट अंग को ही काट दें। मेरा तो यहां तक खयाल है कि पट्टावली आदि साहित्य को अप्रामाणिक कह कर उसको अलग रख दिया जायगा तो हमारा इतिहास सदैव के लिये अधूरा ही रह जायगा । जब ऐतिहासिक समय में या विशिष्ट घटनाओं में झमेला पड़ता है तब उन उलझनों को सुलझाने के लिये हमको उन पटावलियों एवं वंशावलियों की ही शरण लेनी पड़ती है । अभी तक जैन समाज के प्राचीन इतिहास या भारतवर्ष के इतिहास को ढूंढ़ने के खिये जितने प्रबल साधनों की आवश्यकता है उनमें से एक शतांश भी उपलब्ध नहीं हुए हैं जो कुछ प्राप्त हुए हैं वे भी सिलसिले वार-- क्रमानुकूल नहीं है अतः इन त्रुटियों की पूर्ति तो पटावलियां ही कर सकती हैं। अब जरा इतिहास की ओर भी आँख उठा कर देखिये । पहावलियों के समान इतिहासों में भी पर्याप्त मतभेद है । एक ऐतिहासिक व्यक्ति बड़ी शोध खोज के साथ इतिहास लिखा है तब, दूसरा उसके सामने विरोध के रूप में खड़ा हो ही जाता है। उदाहरणार्थ-मौर्यवंशी सम्राटचन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के विषय में जो समय का मतभेद है वह अभी तक मिट नहीं सका है। इसी तरह अशोक के शिलालेखों एवं धर्मलों के विषय में भी मतभेद है-कोई इन धर्मलेणों को सम्राट अशोक के बतलाते हैं तो कोई सम्राट सम्प्रति के एवमेव इरानी बादशाह ने जिस समय भारत पर आक्रमण करके पाटलीपुत्र के पास अपनी छावनी डाली उस समय गत्रि के बक्त एक युवक छावनी में जाकर इरानी बादशाह से मिला था। मिलने वाला युवक चन्द्रगुप्त था तब कोई इतिहास कार कहते हैं कि वह अशोक था। ऐसे एक दो ही नहीं पर परस्पर विरोध प्रदर्शक हजारों उदाहरण विद्यमान हैं। उक्त उदाहरणों को लिखने से मेरा यह तात्पर्य नहीं कि-ऐतिहासिक साधन एकदम निरुपयोगी ही हैं । प्राप्त साधन भारत के लिये बड़े उपयोगी एवं गौरव के हैं, पर ऐतिहासिक साधनों में रही हुई त्रुटियां जैसे अन्य साधनों से सुधारी जाती है उसी तरह प्रमाणों के आधार पर पट्टावली साहित्य में रही हुई त्रुटियां भी सुधारते रहना चाहिये । देखिये पुरातत्व मर्मज्ञ रा० ब० पं: गौरीशंकरजी श्रोमा कहते हैं कि___"इतिहासाव काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं xx तथा जैनों की कई एक पट्टावलियां आदि मिलती है, ये भी इतिहास के साधन हैं।" राजपूताने का इतिहास पृ.१. राज्य-प्रकरण] ९५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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