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वि० सं० ६८०-१२४]
[ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास
गया है हम सब आपके चरणार्विन्द में निर्भय हैं आप भक्तवत्सल हैं ऐसी कृपा करावे कि हम हमारी पूर्वावस्था को पाकर सुखी बनें ? इस पर सूरिजी ने अपनी आंखों से देखी हुई भूमि की और संकेत किया और कहा कि रावजी यदि इस भूमि को आप अपना लें तो आपका अभ्युदय होगा । बस फिरतो कहना ही क्या था राव गोसल ने उस वीर भूमि पर नगर बसाने के लिये छड़ी रोप दी एवं दृढ़ संकल्प कर के कार्य प्रारम्भ कर दिया सूरिजी ने राव गोसल से कहा रावजी आप अपने इष्ट को सदैव स्मरण में रखना रावजी ने सूरि जी का आशीर्वाद रूप वचन को तथाऽस्तु कह कर शिरोधार्य कर लिया इधर तो सूरिजी अपने शिष्यों के साथ रवाने हुए और उधर रावजी ने अपने वीर क्षत्रियों को नया नगर निर्माण करने का आदेश दे दिया साथ में यह भी कह दिया कि सबसे पहले भगवान् पार्श्वनाथ के मंदिर की नींव खोदनी चाहिये बस ! उन लोगों ने ऐसा ही किया फल स्वरूप मन्दिर की नींव खोदते समय भूमि से अक्षय निधान निकल आया जिसको देख कर राव गौसलादि सब के हर्ष का पार नहीं रहा और आचार्य देवगुप्त सूरिजी पर उन सबकी इतनी श्रद्धा होगई कि एक सिद्ध पुरुष पर होजाती है बस फिर तो कहना ही क्या था बहुत ही शीघ्रता के साथ नगर बसाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया । कई सवारों को पुनः पंजाब भेजकर अपने सब कुटुम्ब को वहां बुला लिया क्रमशः उप्त नगर का नाम गोसलपुर रख दिया ! गोसलपुर का राजा रावगोशल को ही बनाया गया। राव गोशल सूरिजी महाराज के वचनों को एक सिद्ध पुरुष की भांति याद करने लगे। इस तरह समय के जाते हुए वह नगर इधर उधर को दसरी आबादी से हर एक बातों में अग्रगण्य, समृद्धिशाली एवं सम्पन्न हो गया। पकेशवंशियों के साथ रावजी की जाति 'आर्य' कहलाने लगी क्योंकि प्राचार्य देव ने उन सबों को पहले आयें शब्द से सम्बोधित किया था। तथा उपकेश वंशियां के साथ रोटी बेटी व्यवहार भी प्रारम्भ होगया। अभी तक क्षत्रियों से नवीन ही निकले हुए होने के कारण उनके उपकेशवंशियों के सिवाय राजपूतों से भी खान पान, शादी वगैरह व्यवहार चालू थे । पूर्वाचार्यों की शुरू से भी यही मान्यता थी कि किसी क्षेत्र को संकुरित करना पत्तन का कारण है-उन लोगों को मांस मदिरादि सात व्यसनों के त्याग शुरूसे करवा दिया था ।
___राव गोसल के १४ पुत्र पंजाब में रहे और पाठ पुत्र उनके पास गोसलपुर में रहे। गोसलपुर में रहने वाले पत्रों के नाम पट्टावली कारों ने निम्न लिखे हैं- १ आसल, २ पासल, ३ दशल, ४ खुमान, ५ रामपाल, ६ भीम, ७ सांगण, और ८ खेंगार ।
आचार्य देवगुप्तसूरि एक बार विहार करते हुए गोसलपुर पघारे । गवगोसल ने सूरिजी का बड़े ही उत्साह से स्वागत किया । सूरिजी ने रावजी को धर्मोपदेश दिया। रावजी ने सूरिजी का परमोपकार माना। अत्यन्त गद्गद् स्वर में प्रार्थना की-भगवन् ! आपके उपकार से मैं इस भव में तो क्या ? पर भव २ में भी उऋण नहीं होसकूँगा फिर भी कृपा कर मेरे लायक कुछ कार्य फरमावें । सूरिजी ने कहा-राजन् ! हम निस्पृही निम्रन्थों के काम ही क्या हो सकता है ? हम उपदेशक हैं, हमारा काम तो संसारी जीवों को सद्बोध देकर उनका उद्धार करने का है।
पावलियों एवं वंशावलियों में पाया जाता है कि राव गोसल का बेटी व्यवहार उपकेशवंशियों के अलावा १२ पुश्त तक राजपूतों के साथ भी रहा पर १२ पीडी के बाद में किसी विशेष कारण से राजपूतों के साथ उनका बेटी व्यवहार वंद होगया तथापि वे विक्रम की बारहवीं शताब्दी पर्यत वीरता के साथ राजतंत्र चलाते रहे।
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राव गोशल की प्रार्थना
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