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वि० सं० ७२४ से ७७८ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विशिष्टताओं के होने पर भी सन्त त्यभाव रूप क्षीण चिन्ता उसे रात दिन नवीन संताप से सतप्त करती रहती । उसने अपने सार्थक जीवन को एक दम निरर्थक मूल्य शून्य समझ लिया। एक दिन पुण्य संयोग से उसकी भेंट एक जैन मुनि के साथ होगई तब उसने अपने गृह दुःख का सम्पूर्ण हाल मुनि को कहा और उक्त दुःख से विमुक्त होने का मुनि से कोई उपाय मांगने लगा । मुनि ने संसार एवं कुटुम्ब की अनित्यता बतला कर धर्माराधन करने का उपदेश दिया । हरदेव ने भी सपत्नी मुनि के कथनानुसार जैनधर्म को स्वीकार कर लिया । कुछ समय के पश्चात् संसार के स्वरूप एवं कर्मों की विचित्रता का विचार करते हुए हरदेव इतना संतोषी बन गया कि सन्तति की चिन्ता भी इसके हृदय से निकल गई। कहा है-“संतोष ही परम सुख है" वास्तव में यह प्रकृति एवं अनुभव सिद्ध बात है कि जिस पदार्थ पर जितनी अधिक तृष्णा एवं मोह बुद्धि होती है वह पदार्थ अपने से स्तना ही दूर भागता जाता है और जिस पदार्थ की हृदय में इच्छा नहीं, कल्पना नहीं वह अनायास ही अपने आप उपलब्ध हो जाता है । प्रकृति के इस अटल एनं निराबाध नियमानुसार संतति इच्छा से विरक्त हरदेव ब्राह्मण के कुछ समय के पश्चात एक पुत्र होगया।
इधर जैनेतर ब्राह्मण उपसे घृणा करने लगे । वे हरदेव की भर्त्सना करते हुए कहने लगे-हरदेव-ब्रह्म धर्म से और विशुद्ध वेदिक धर्म से पतित होकर जैनी बन गया है अतः उसके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करना ठीक नहीं । वह जाति से ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणों का शत्रु है, धार्मिक एवं शास्त्रोत्थापक नास्तिक है । निंदनीय है और भर्त्सना करने योग्य है । उसके साथ किसी भी प्रकार का जातीय व्यवहार करना अपने आपको सद्धर्म से पतित करना है । इस प्रकार के अपने लिये निंदनीय वचनों को सुनकर बोलने में चतुर ब्राह्मण की पत्नी ने कहा-ब्राह्मणत्व का दम भरने वाले ब्राह्मणों ! जरा ब्रह्म शब्द की सूक्ष्मता एवं धर्म की गम्भीरता पर विचार करो। आपके इन बाह्याडम्बरों एवं शाब्दिक वाक्प्रपञ्चों की जटिलता से किसी प्रकार की अर्थ सिद्धि नहीं होने की है । प्रत्येक धर्म का मूल पाया अहिंसापरमधर्म की मुख्यता को लिये हुए है अतः यज्ञादि हिंसा प्रतिपादक, क्रिया काण्डोंरूप पातको जुगुप्सनीय कर्मों को करते हुए भी “वैदिक हिंसा हिंसा न भवति" का झूठा दम भरना कहां तक न्याय संगत है ? यदि हमने हिंसाधर्म को छोड़कर विशुद्ध अहिंसामयधर्म स्व कार किया तो इसमें क्या बुरा किया ? हमने ही क्यों ? पर हमारे पूर्वजों ने हजारों, लाखों की तादाद में इस पवित्र, आत्मकल्याण करने में समर्थ धर्म का पालन कर संसार भर में प्रचार किया । जब शिवराजर्षि, पोगल, स्कंधक सन्यासी एवं गौतमादि हजारों चतुर्वेदाष्टादशपुराणपारगंत विद्वान ब्राह्मणों ने भी ज्ञान दृष्टि से यज्ञादि क्रिया काण्ड को आत्मगुण विघातक समझ ब्राह्मण धर्म का त्यागकर श्रेष्ठ जैनत्व को अंगीकार किया तो हमारी निरर्थक निंदा करने से आप लोगों को क्या लाभ मिलेगा ? मैं तो अनुभव सिद्ध एवं शास्त्रानुकूल आप लोगों को भी राय देती हूँ कि आप लोग भी श्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व का त्याग कर, शुद्ध, श्रात्मकल्याण कारक जैनधर्म को स्वीकार करें।
सेठजी ! उक्त उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि धर्म सचमुच कल्पवृक्ष ही है अतः आप भी अपनी मिथ्यातृष्णा का त्याग कर शुद्ध, सनातन एवं पुनीत जैनधर्म को स्वीकार कर आत्म कल्याण कर । श्राचार्यश्री के इस निष्पक्ष, मार्मिक उपदेश ने सेठजी के हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । उन्होंने उसी समय जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और अपनी धर्मपत्नी को भी जैन धर्मोपासिका एवं परमाश्रविका बना दी। अब तो सेठ मुकुंद सूरिजी के परमभक्त बन गये। हमेशा व्याख्यान श्रवण करना उन्हें बहुत ही रुचिकर मालूम
ब्राह्मणों का मुकन को ताना मारना
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