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आचार्य देवगुप्तसूरी का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११२४-११७८
किये । व्रत, नियम लिये, भेरु, चण्डिकादि देवी देवताओं की मानताए मनाई, बाबा, योगी सन्यासियों, को जादू, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र इत्यादि सैंकडों अनुकूल उपाय किये किन्तु प्रकृति एवं कर्मों की प्रतिकूलता के कारण वे सब अनुकूल यत्न भी प्रतिकूल शत्रु के समान दुःखदायी ही प्रतीत होने लगे। इस तरह सेठजी एक दम पुत्र की आशा से निराश बन गये थे और यह निराशाही उनके कोमल हृदय को कण्टक की तरह भेद रही थी । सम्पूर्ण आनन्द को किरकिरा कर रही थी।
एक दिन सेठजी ने सुना कि शहर में एक जैनाचार्य महात्मा आये हैं वे बड़े ही तपस्वी, योगों एवं सिद्ध महापुरुष हैं । सूरीश्वरजी की उक्त प्रशंसा सुनकर सेठजी तुरत अपनी मनोकामना को पूर्ण करने मंत्र यंत्रादि की अाशा से आचार्यश्री के पास में आये और अपने गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी सम्पूर्ण हालत को अथ से इति पर्यन्त सुनाना प्रारम्भ किया । अन्त में मृत्युपुत्रों के होने रूप मनोगत दुःख को निवेदन कर सेठजी आंखों में अशुले आये । सूरिजी ने सोचा कि यह बेचारा कर्म सिद्धान्त से अज्ञात है अवश्य, पर हृदय का अत्यन्त सरल एवं भद्रिक स्वभावी है । यदि इसको उपदेश दिया जाय तो अवश्य ही एक आत्मा का सहज ही में कल्याण हो सकता है । इसी आदर्श एवं उच्चतम भावना को लक्ष्य में रख कर आचार्यश्री ने सेठ मुकुन्द को कम सिद्धान्त का तात्विक एवं मार्मिक उपदेश देना प्रारम्भ किया। वे कहने लगे-महानुभाव ! प्रत्येक जीव अपने शुभाशुभ कर्मों का फल इसभव में या परभवमें अनुभव करता ही रहता है । शास्त्रीयकथनाननुसार "कडाण कम्माण न मोक्ख अन्थि" अर्थात् पूर्व जन्मोपार्जित शुभ-सुखरूप और अशुभ-दुःख रूप कर्मों के फल को आस्वादन किये बिना उनसे मुक्त होना अशक्य है । पूर्वकृत कमों के दुःख को जब अभी भी इस तरह के अश्रुपात के रूप में उसको प्रकाशित कर रहे हो तो भविष्य के लिये तो अवश्य ही इस प्रकार का उपाय करना चाहिये कि जिससे किसी भी प्रकार के दुःख का अनुभव न करना पड़े। यह तो अपने ही पहले के जन्म के पापोदय हैं ऐसा समझकर पुत्र के लिये आर्तध्यान करना छोड़ दो। इसकी चिन्ता ही चिन्ता में नवीन कर्मों का बंधन कर भविष्य के जीवन को दुःखमय बनाना
और वर्तमान में प्राप्त नरदेह को यो ही खो देना कहां की बुद्धिमत्ता है आपको तो इस नरदेह की अमूल्यता पर विचार करके श्रार्तध्यान को छोड़ आत्मकल्याण के एकान्त सुखमय मार्ग के लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये । इस मार्ग में किसी भी प्रकार के दुःख एवं विघ्न की आशंका ही नहीं है । यह इस भव और परभवउभयभव में आनन्द दायी है । सेठजी ! जरा शान्त चित्त से विचार करो-यदि किसी के एक, दो यावत सौ पुत्र भी होजाय तो क्या ये पुत्र वगैरह परिवार एवं धन वगैरह पौद्गगलिक पदार्थ परभव में किसी भी प्रकार के सहायक हो सकते हैं ! या किसी तरह के नरक तिर्यञ्च के दुःखों से मुक्त करा सकते हैं ? नहीं तो फिर भ्यर्थ ही इस प्रकार चिन्ताओं में गल कर एवं आर्तध्यान के वशीभूत हो कर कर्म बंधन करना कहां तक युक्तियुक्त है ? इस पर श्राप और भी गहरी दृष्टि से विचार करें।
देवानुप्रिय ! धर्म एक ऐसा कल्पवृक्ष है कि इसके अराधन से जीव को मनोमान्छित पदार्थ की प्राप्ति हो सकती है । जीव, धर्मानुमार्ग का अनुसरण करके इसलोक परलोक में सुखी होता है और ईश्वरी सता को क्रमशः प्राप्त करके जन्म, जरा, मरण के भयङकर दुःखों से मुक्त हो जाता है । इसके लिये धर्म पर अटूट श्रद्धा एवं भक्ति होनी चाहिये । देखो, परम्परागत एक ऐसी कथा सुनने में आती है कि किसी नगर में हरदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके पास द्रव्य की अधिकता एक पोद्गलिक पदार्थों की विशिष्ट भगेच में मुकन्द सेठ की पूरिजी की भेट
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