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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ होने लगा अतः व्याख्यान के समय तथा उन व्याख्यान के सिबाय अन्य समय में भी जैन धर्मके उत्कृष्ठ तत्वों को समझने के लिये वे सूरीश्वरजी के पास आने जाने लगे। ___कहा है पत्रावलियों से सघन, बने हुए बड़े वृक्ष की छाया भी वृक्ष के आकार के अनुरूप विस्तृत ही होती है । उसके विस्तृत एवं उदार श्राश्रय में सैकड़ों जीव सुखपूर्वक श्राश्रय ले सकते हैं । तदनुसार सेठ मुकुन्द भी भरोंच शहर के एक नामाङ्कित कोट्याधी !! पुरुष थे । उनके आश्रित हजारों और भी व्यक्ति थे जो व्यापार आदि कार्यों में सेठजो की सहायता से अपना, स्वार्थ साधन करते थे। उन्होंने भी अपने श्राश्रयदाता सेठश्रीमुकुन्द के मार्ग का अनुसरण कर जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। जिस दिन से सेठ मुकुन्द ने जैनधर्म स्वीकार किया उस दिन से ही ब्राह्मणों के मानस में चूहे कूदने लगे। वे सेठजी को बार २ यही व्यङ्ग करते कि--पुत्राभाव के कारण व पुत्र प्राप्ति की आशा से सेठजी ने जैनधर्म स्वीकार किया है किन्तु हम देखते हैं कि जैनाचार्य सेठजी को कितने पुत्र देते हैं ? सेठजी इसका स्पष्टो करण करते हुए स्पष्ट कहते - जब तक मुझे कर्म सिद्धान्त का ज्ञान नहीं था, मैं पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा रखता था और अनेकों से इस विषय में परामर्श कर मनस्तुष्टि करना चाहता था पर किसी ने भी मुझे मन संतोषकारक जबाब नहीं दियो पर, जब मैंने जैनाचार्यों से कर्म सिद्धान्त के मर्म को सुना तो मुझे विश्वास होगया कि एक पुत्र ही क्या पर संसार में जो कुछ भी दृष्टि गोचर होरहा है वह सब कर्मों की विचित्रता के कारण से ही है । कोई सुखी हैं तो कोई दुःखी हैं। कोई राजमहलों के अनुपम सुखों का उपभोग कर रहे हैं तो कोई दर २ के याचक बने हुये हैं ये सब पूर्व कृत कमों के ही प्रत्यक्ष फल हैं । इसमें संदेह करना आत्मवंचना है । फिर मेरा जैनधर्म स्वीकार करना भी तो कर्मों के क्षयोपशम का ही कारण है अतः आप लोगों की स्वार्थ विधातक निंदा मेरी अभीष्ट सिद्ध में किञ्चित् भी बाधक नहीं हो सकती। श्राप लोगों के द्वारा की गई निंदा, मेरी उत्तरोत्तर श्रद्धावृद्धि का ही कारण बनेगी । एवं कर्मों का नाश करने में परम सहायक बनेगी मैं तो आप लोगों के एकान्त आत्म कल्याण के लिये श्राप लोगों को भी सम्मति देताहूँ आप, जैनाचार्यों के पास में आकर जैनधर्म के सूक्ष्म एवं गम्भीर स्वरूप को सूक्ष्मता पूर्वक सममें । जैनधर्म ब्राह्मण धर्म से पृथक नहीं है किन्तु ब्राह्मण धर्म के उपदेशकों में-साधुओं में आचार विचार एवं मान्यताओं के विषय की सविशेष विकृति होजाने के कारण, उन के लोभी, लालची, सारम्भी, सपरिग्रही, लोलुपी होजाने से धर्म का दृढ़ अंग भी पन होगया है । बहुत अन्वेषण करने पर भी उसकी वास्तविकता का अनुसंधान करना असक्य होगया है । मांसप्रेमियों से परिचालित इस विभत्स यज्ञ परिपाटी ने ब्राह्मणों को सनातन अहिंसा धर्म से एक दम पराङ्मुख बना दिया है । उक्त कारणों से धर्म का इसमें सत्यत्व का अंश मिलना दुर्लभ होगया है । बन्धुओं ! इसी ऊपरी बनावटी मिलावट ने ब्राह्मण धर्म का नाम मात्र शेष रख दिया है इसके विपरीत जैनधर्म व बौद्धधर्म भारत के ही नहीं अपितु संसार भर के आदरणीय धर्म बनते जारहे हैं । अहिंसादि सात्विक तत्वों की प्रधानता ने इन धर्मों को मनुष्य मात्र के श्रात्म कल्याण के लिये परमो. पयोगी बना दिया है । यद्यपि बौद्ध क्षणिकवादी होने के कारण जैनधर्म की समानता नहीं कर सकता है पर अहिंसादि के सिद्धान्तों की प्रबलता के कारण ब्राह्मण धर्म की अपेक्षा आज दुनिया में इसका बहुत कुछ महत्व है । जैनधर्म तो अहिंसा के साथ ही साथ वस्तुतत्व के प्राकृतिक गुण 'उत्पाद व्यय घ्रोव्ययुक्तसत्' का एनं अनेकान्तवाद का परमानुयायी होने के कारण जन समाज के लिये विशेष हितकारक एवं आत्म कल्याण के सेठ मुकुन्द ने जैनधर्म स्वीकार किया १११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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