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________________ वि० सं० ७२४-७७८] [ भगवान पानाथ की परम्परा का इतिहास लिये परमोत्कृष्ट साधन है । इस तरह वे ब्राह्मणों की शंकाओं का समाधान किया करते थे। आचार्यश्री सिद्धसूरिने कुछ समय के पश्चात् अपने शास्त्रीय कल्पानुसार भरोंच नगर से विहार कर धर्म प्रचार करते हुए क्रमशः मरुधर प्रान्त एवं चंद्रावती में पदार्पण किया । इधर कालान्तर में पुन्योदय के प्रभाव से सेठजी के देव प्रभा जैसा सुदर एवं मनको मुदित करने वाला एकपुन हुआ। सेठ जी को पुत्रोत्पत्तिका जितना हर्ष नहीं हु प्रा उतना जैनधर्म की महिमा एवं प्रभावना का आनंद हुआ। कारण सेठजी कर्म सिद्ध न्त के मर्म को जानगये थे ब्राह्मणों को लज्जित करने का एवं सत्य धर्म की सत्यता का यह प्रत्यक्ष उदाहरणथा अतः उनके हृदय में धर्म के प्रति जो अनुराग था वह और भी दृढ़ होता गया। ब्राह्मणा सबलज्जाभार से नतमस्तक हो गये कारण वे यदा कदा समयानुकूल सदा ही सेठजी को व्यंग करते थे कि-"हमारे प्रयत्नों से तो सेठजी के सन्तान नहीं हुई पर जैनधर्म स्वीकार कर लेने के कारण अब जैनाचार्य इनको पुत्र ही पुत्र दे देंगे।" आज उक्त ब्यंग करने वाले ये ही ब्राह्मण ठण्डेगार बन गये । सेठजी के यहां तो पुत्रोत्पत्तिका हर्ष, ब्राह्मणों को लज्जित करने का आनन्द एवं धर्म की प्रभावना क अनुपमेय मोद रूप हर्ष का त्रिवेणी सङ्गा हो गया । आचार्यश्री के इस असीम उपकार की वे रह रह कर प्रशंसा एवं स्तुति करने लगे। उनको नीति का यह वाक्य-"परोपकाराय सतां विभूतयः" याद आने लगा। वे आचर्यश्री का हृदय से आभार मानने लगे। इतने से ही उनको सन्तोष नहीं रहा। सेठ मुकुन्द की तो इतनी भावना बढ़ गई कि एकबार सूरीश्वरजी को पुनः भरोंच में लाना चाहिये जिससे मेरे समान बहुत से दूसरे जीवों का भी आत्म कल्याण हो सके । बस, उक्त भावना से प्रेरित हो उन्होंने अपने श्रादमियों को भेज कर यह खबर करवाई कि- वर्तमान में आचार्यश्री कहां पर विराजते हैं ? यह तो पहिले से ही मालूम था कि सिद्धसूरिजी का चातुर्मास चंद्रावती में निश्चित हो चुका है अतः वे वर्तमान में भी चंद्रावती के आस पास ही विराजित होने चाहिये । उक्त निश्चयानुसार उन्होंने अपने आदमियों को मरुधर भेजे और कोरंट पुर में उन लोगों को आचार्यश्री के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । आये हुए आदमियों ने सेठजी की ओर से वंदन कर के भरोंच की ओर पधारने की प्रार्थना की। इस पर आचार्यश्री ने फरमाया कि-अभी तो कुछ समय तक हमाग विचार मरुभूमि में ही धर्म प्रचार करने का है और चातुर्मास के पश्चात् उपकेशपुर की यात्रार्थ जाने का है फिर तो जैसी क्षेत्र स्पर्शना हो-कौन कह सकता है ? श्रादमियों ने भरोंच जाकर सेठजी को सूरिजी के धर्मलाभ के साथ सब हाल सुना दिये । प्राचार्य श्री के आगमन के भाव में सेठजी को स्वयं ही उपकेशपुर की यात्रार्थ जाना उचित ज्ञात हुआ और उन्होंने अपने उक्त विचारानुकूल उपाध्यायश्री श्री मेरुप्रभजी के अध्यक्षत्व में भरोंच से उपकेशपुर की यात्रार्थ एक संघ निकाला । इस संघ में सेठ, सेठानी नवजात शिशु बगैरह सेठजी का कौटुम्बिक परिवार, एक हजार साधु साध्वी, और बीस हजार अन्य गृहस्थ सम्मलित थे। उ. श्रीमेकप्रभादि मुनियों ने शुभ मुहूर्त में सेठ मुकुन्द को संघपति पद प्रधान किया व शुभ शकुनों को लेकर संघ ने उपकेशपुर की यात्रार्थ प्रस्थान किया मार्ग के मन्दिरों के दर्शन, अष्ठान्हिाका महोत्सव, ध्वजारोहण स्वामीवासल्यादि धर्म प्रभावना के कार्यों को करते हुए संघ क्रमशः उपो शपुर पहुँचा। श्रीसिद्धसूरीश्वरजी म. उपकेशपुर में पहिले से ही विगजित थे। उपकेशपुर के संघ ने भरोंच से आये हुए संघ का श्राचार्यश्री के स्वागत के समान शानदार स्वागत किया । सेठ मुकुन्द ने सूरिजी को वंदन किया और भगवान महावीर की यात्रा कर अपने को अहोभाग्य समझा । १११८ सेठ मुकन्द का भाग्योदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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