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________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाती है तीसरा उनको यह भी अनुभव रहता है कि जैसे मैं अज्ञान दशा में आत्मा का अहित करता था इसी प्रकार मेरे भाई कर रहे हैं उनका मैं उद्धार करूँ इत्यादि : जैसे रत्नागर भाँति-भाँति के अमूल्य रत्नों से शोभा देता है इसी प्रकार आचार्यरत्नप्रभसूरि का गच्छ अनेक विद्वान् मुनियों से शोभा दे रहे थे उन मुनि समूह में मुनि शान्ति सागर सर्व गुण सम्पन्न था सूरिजी के वृद्धावस्था के कारण व्याख्वान मुनि शान्तिसागर ही दिया करते थे आपका व्याख्यान विशेष तात्विक एवं दार्शनिक विषयपर होताथा तथा त्याग वैराग्य तो आपके नस नस ठूस-ठूस कर भरा हुआ था कि जिसको श्रवण कर मनुष्यों के रुवाटे खड़े होजाते थे अतः नगरमें मुनि शान्तिसागर की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी इतना ही क्यों पर श्रीसंघ की भावना तो यहाँ तक हो गई कि मुनि शान्तिसागर को आचार्य पद दिया जाय तो बहुत अच्छा है कारण आप सूरि पद के सर्वथा योग्य है अतः श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! यों तो आपके सर्व शिष्य योग्य हैं और आत्मकल्याण के लिये तत्पर है परन्तु यहाँ के श्रीसंघ की प्रार्थना है कि मुनि शान्तिसागर को सूरिपद दिया जाय और यह कार्य हमारे नगर में हो कि हम लोगों को भी लाभ मिले साथ में एक यह भी अर्ज है कि यदि आपका शास्त्र स्वीकार करना हो तो आनन्दमूर्ति को भी पदस्थ बनाना चाहिये । कारण आनन्दमूर्तिजी अच्छे विद्वान एवं योग्य पुरुष हैं ऐसों का उत्साह बढ़ाने में जैनधर्म को तो लाभ है ही परन्तु दूसरे सन्यासियों पर भी इस बात का अच्छा प्रभाव पड़ेगा । पूज्यवर ! कई लोग तो इस कारण से जानते हुये भी मतवन्धन एवं वेशवन्धन छोड़ नहीं सकते हैं कि हम जैन साधु बने तो सबसे छोटा बनना पड़ेगादि ? दूसरा योग्य पुरुषों का सत्कार करना अपना कर्तव्य भी है । इस पर सूरिजी ने कहा श्रावको ! आपका कहना ठीक ह मैं इसको स्वीकर करता हूँ मुनि शान्ति सागर को सूरिपद देने का तो मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है दूसरे आनन्दमूर्ति भी योग्य पुरुष हैं जैन शास्त्रों में योग्य पुरुषों का सत्कार करने की मनाई नहीं है इतना ही क्यों पर योग्य हो तो जिस दिन दीक्षा दी उसी दिन आचार्य पदादि पद देने का फरमान है अतः मैं अानन्दमूर्ति के लिये भी विचार अवश्य करूँगा । श्रीसंघ ने कहा पूज्यवर ! आप शासन के स्तम्भ है दीर्घदर्शी हैं ज कुछ करेंगे वह शासन के लिये हित का ही कारण होगा परन्तु यहाँ के श्रीसंघ का बहुत आग्रह है कि यह पुनीत कार्य इस नगर में ही होना चाहिये अतः स्वीकृती फरमावे ? सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जानकर स्वीकृति दे दी। वस फिर तो कहना ही क्या था आज डामरेल नगर के घर घर में उत्साह एवं हर्ष की तरंगों उछलने लग गई है और तन मन तथा धन से उच्छव करने में लग गये । शुभ मुहूर्त में मुनि शान्तिसागर को आचार्य पद देकर आपका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया तथा मुनि सोमप्रभादि ५ मुनियों को उपाध्यायपद, राज मुन्दर एवं आनन्दमूर्नि आदि ५१ मुनियों को पण्डित पद, मुनिकल्याणकलसादि सात मुनियों को वाचनाचार्य पद, मुनि रत्नशिखरादि नौ मुनियों को गणि पद दिया पूर्व जमाना में योग्यता की पूरी परीक्षा करके ही पदवियाँ दी जाती थीं और पदवियां लेने वाले भी अपनी जुम्मावारी का पूरा पूरा खयाल रखते थे यही कारण है कि आचार्यों का शासन उन पदवी धरों से शोभायमान दीखता था जैसे समुद्र कमलों से तथा चन्द्र प्रहनक्षत्र और ताराओं से शोभायमान दीखता है: एक समय आचार्य सिद्धसूरि रात्रि समय धर्म कार्य एवं आत्म ध्यान की चिंतवना करते समय ८२० [ मुनि शान्तिसागर को आचार्य पद rand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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