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________________ आचार्य रत्नमभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८००-८२४ अच्छे बुरे देवगुरु धर्म को एकसा समझनेसे मिश्रमोहनीय क्रोध, मान, माया, लोभ हँसारिसे चारित्र मोहनीय कर्म वन्धते हैं । ५-जैसे परिणाम वैसा आयुष्कर्म । ६-देवगुरू की सेवा उपासनादि शुभकर्म करने से शुभ नाम और अशुभ कर्म करने से अशुभनाम कर्म वन्धता है ७-जातिकुल बल,रूप, लाभादि का मद करने से नीच गोत्र और मद नही करने से उच्च गौत्र बन्धता है । ८-किसी जीव के दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य की अन्तराय देने से अन्तराय कर्म बन्धजाग है । इस प्रकार आठ कर्म तथा इनकी उत्तर प्रकृतियें हैं जैसे २ अध्यवसायों की प्रेरणा से कार्य किया जाता है वैसे-वैसे कर्म बन्ध जाता है फिर उदय पाने पर उन कमों को भोगना पड़ता है। जो लोग कर्मों का स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जान कर समभाव से भोगते हैं वे कर्मों की निर्जरा कर देते हैं और नये कर्म नहीं बन्धते हैं तब अज्ञानता के वस होकर आर्तध्यान करते हैं वे फिर नये कोपार्जन कर लेते हैं अतः कर्म परम्परा से छुट नहीं सकते । इस. लिये कर्मों की निर्जरा करने के लिये दीक्षा लेकर ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना करनी चाहिये इत्यादि । सन्यासी जी ने इस प्रकार अपूर्व ज्ञान अपनी जिन्दगी में पहला ही सुना था और भी जिस-जिस विषय में श्राप शंका करते उसका मुनिजी अपनी शान्त प्रकृति से ठीक समाधान कर देते थे जिससे सन्यासी जी को अच्छा संतोष हो गया इतना में सूरिजी भी वापिस पधार गये थे सन्यासीजी ने सूरिजी से प्रार्थना की कि मुनिजी ने अात्मा एवं कमों का स्वरूप मुझे समझाया जिसको मैंने ठीक तौर से समझ लिया पर कृपा कर आप मुझे आत्म कल्याण का रास्ता बतला कि जिससे जन्म मरण के दुःख मिट जाय ? सूरिजी ने कहा यदि आपको जन्म मरण के दुःख मिटाना है तो जिनेन्द्रदेव कथिन दीक्षा लेकर तप, संयम की आराधना करो सबसे उत्तम यही मार्ग है । बस फिर तो देरी ही क्या थी । सन्यासी ने अपने शिष्यों के साथ सूरिजी के चरणकमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली अह-हा । जब जीव के कल्याण का समय नजदीक आता है तब वे किस प्रकार उल्टे के सुल्टे बन जाते हैं एक व्यक्ति द्वारा जैनधर्म की निन्दा होती थी वही व्यक्ति जैन धर्म की दीक्षा ले इससे अधिक क्या लाभ एवं प्रभावना हो सकती है। सूरिजी ने उन सत्योपासक सन्यासीजी को दीक्षा देकर आपका नाम "आनन्दमूर्ति" रख दिया मुनि आनन्दमूर्ति श्रादि ज्यों-ज्यों जैनधर्म के आगमों का अध्ययन एवं क्रिया काँड करते गये त्यों-त्यों उनकी आत्मा के अन्दर आनन्द की तरंगों उछलने लग गई थी यह कार्य नया ही नहीं था पर पहले भी शिवराजर्षि पोग्गल एवं स्कन्धक सन्यासी आदि अनेक सन्यासियों ने जैनदीक्षा स्वीकार कर स्व-परात्माओं का कल्याण के साथ जैनधर्म का खूब ही उद्योत किया था डामरेल नगर के श्री संघ का उत्साह खूब बढ़ गया अतः श्री संघ ने सूरिजी से साग्रह विनती की कि पूज्यवर ! यह चतुर्मास यहाँ करके हम लोगों को कृतार्थ करावें आपके विराजने से बहुत उपकार होगा-इत्यादि । सूरिजी ने लाभा-लाभ का कारण जन श्रीसंघ की विनती स्वीकार करली बस ! फिर तो कहना ही क्या था जनता का उत्साह नदी का वेग की भाँति खूब बढ़ गाय । मुनि आनन्दमूर्ति पर सूरिजी एवं मुनि शान्तिसागर की पूर्ण कृपा थी आपको ज्ञान पढ़ने की खूब कचि थी आप पहिले से ही विद्वान् थे केवल उल्टे से सुल्टे होने की ही जरूरत थी आप थोड़ा ही समय में जैनागमों का ज्ञान प्राप्त कर धुरंधर विद्वान् बन गये दुसरा एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन होता है तब उनके उत्साह का वेग कई गुना बढ़ जाता है और स्वीकार धर्म का प्रचार की बिजली खूब सतेज हो वापस की दीक्षा और आनन्द मूर्ति ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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