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________________ वि० सं० ४०० – ४२४ वर्षे | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ही समयज्ञथे आपने मुनि शांतिसागर को श्राज्ञा दे दी कि तुम सन्यासीजी को श्रात्मा और कर्मों के विषय में अच्छी तरह समझाओ। जैसे भगवान महावीर ने गौतम को कहा था कि तुम जाओ इस किसान को समझा कर दीक्षा दो । खैर सूरिजी महाराज तो इतना कह कर जंगल में चले गये । तत्पश्चात मुनि शांतिसागर ने सन्यासीजी को कहा महात्माजी यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आत्मा के प्रदेशों से मिथ्यात्व के दलक दूर होते हैं तब उस जीव को सत्य धर्म की खोज करना एवं श्रवण करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है जैसे श्रापको हुई है । महात्माजी श्रात्मा नित्य शाश्वता द्रव्य है यह नतो कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी इसका विनाश ही होता है । परन्तु जैसे तिलों में तेल, दूध में घृत, धूल में धातु, फूलों में सुगन्ध और चन्द्रकान्ता में अमृत अनादि काल से मिला हुआ है वैसे श्रात्मा के साथ कर्म लगे हुए हैं और उन कर्मों के कारण संसार में नये नये रूप धारण कर उच्चनीच योनियों में अत्मा परिभ्रमन करता है परन्तु जैसे तिलों को यंत्र का संयोग मिलने से तेल और खल अलग हो जाता है और तेल खल का अनादि संयोग छूट जाने पर फिर वे कभी नहीं मिलते हैं वैसे ही जीवात्मा को ज्ञान दर्शन चारित्र रूप यंत्र का संयोग मिलने से अनादि काल से जीव और कर्मों का संयोग था वह अलग हो जाता है उन कर्मों से अलग हुए जीव को ही सिद्ध परमात्मा परमेश्वर कहा जाता है। फिर उस जीव का जन्म मरण नहीं होता है जैसे वन्ध मुक्त जीव सुखी होता है वैसे कर्ममुक्त जीव परम एवं अक्षय सुखी हो जाता है । जिन जीवों ने संसारिक एवं पौदगलिक सुखों पर लात मार कर दीक्षा ली है और ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना की और कर रहे हैं उन सबका यही ध्येय है कि कर्मों से मुक्त हो सिद्ध पद को प्राप्त करना फिर वे उसी भव में मोक्ष जावे या भवान्तर में परन्तु उस रास्ते को पकड़ा वह अवश्य मोक्ष प्राप्त कर सदैव के लिये सुखी बन जाता है संसार में बड़े से बड़ा दुख जन्म मरण का है उससे मुक्त होने का एक ही उपाय है कि वीतराग देवों की श्राज्ञा का श्राराधना करना अर्थात् दीक्षा लेकर रत्नत्रिय की सम्यक आराधना करना । सन्यासी ने कहा गुरू महाराज श्रापका कहना सत्य है और मेरी समझ में भी आ गया पर कर्म क्या वस्तु है और उसमें ऐसी क्या ताकत है कि जीवात्मा को दबा कर संसार में परिभ्रमन करता है इसको आप ठीक समझाये ? मुनि ने कहा सन्यासीजी । कर्म परमाणुओं का समूह है और परमाणुओं में वर्ण गन्ध र स्पर्श की इतनी तीव्रता होती है कि चैतन का भांन भुला देता है जैसे एक अच्छा लिखा पढ़ा समझदार मनुष्य भंग पी लेता है भंग परमाणुओं का समूह एवं जड़ पदार्थ है पर चेतन को बेभान बना देता है भग के नशा की मुदित होती है जब भंग का नशा उतरता है तब मनुष्य अपना असली रूप में सावधान हो जाता है वैसे ही कर्मों के पुङ्गगलों में रसादि होते है और उसकी मुद्दत भी होती है वे कर्म मूल आठ प्रकार के है और उनकी उत्तरयक्रतिये १५८ जैसे हलवाई खंड के खिलौने बनाते हैं उन खिलौनों के लिये साँचे होते हैं जिस साँचे में खाँड का रस डालते हैं वैसे श्राकार के खिलौने बन जाते हैं वैसे ही कर्मों के आठ साँचे हैं। १ - किसी ने ज्ञान की विराधना की उसके ज्ञानावर्णिय कर्म बन्ध जाते हैं जब वह कर्म उदय में आता है तब उस जीव को सद्ज्ञान से अरुचि हो जाती है अर्थात् सद्ज्ञान प्राप्ति नहीं होने देता है । २ -- इसी प्रकार दर्शन की विराधना करने से दर्शनाबर्णिय कर्म बन्ध जाता है । ३ - जीवों को तकलीफ देने से असातावेदनी और आराम पहुँचाने से साता वेदनी कर्म बन्ध जाते हैं । ४ – कुदेव कुगुरू कुधर्मके सेवन से मिथ्यात्व मोहनी ८१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ तापस और आत्मबाद www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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