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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८०० – ८२४ है स्वर्ग नरक को मानता हैं सुकृत के शुभ और दुकृत के अशुभ फल अर्थात पुन्य पाप को मानता है ऐसा पवित्र धर्म को नास्तिक कहना अनभिज्ञाता नहीं तो और क्या हैं ? महात्माजी ! क्षत्रियों का धर्म शिकार करना एवं मांस खाने का नहीं है किन्तु चराचर जीवों की रक्षा करने का है कोई भी धर्म विना अपराध विचारे मुक् जीवों को मारना एवं मांस खाने की आज्ञा नहीं देता हैं बल्कि 'अहिंसा परमोधर्म' की उद्घोषणा करता है । अफसोस है कि आप धर्म के नेता होते हुए भी शिकार करना एवं मांस भक्षण की हिमायत करते हो ? महात्माजी ! साधु सन्यासी तप जप एवं ब्रह्मचर्य से सदैव पवित्र रहते है उनको स्नान करने की आव श्यकता नहीं है और गृहस्थ लोगों को पट्कर्म में पहला देवपूजा है वह स्नान करके ही की जाती है और यह गृहस्थों का आचार भी हैं इसके लिये कोई इन्कार भी नहीं करते है फिर समझ में नहीं आता है कि आप जैसे संसार त्यागी व्यर्थ ही जनता में भ्रम क्यों फैलाते हो । इत्यादि मधुर वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया कि सन्यासीजी इस विषय में वापिस कुछ भी नहीं बोल सके। फिर सन्यासीजी ने कहां कि आपलोग केवल भूखे मग्ना जानते हो पर योग विद्या नहीं जानते है जो आत्मकल्याण एवं मौक्ष का खास साधन है । मुनि ने कहा महात्माजी ! योग विद्या का मूल स्थान ही जैन धर्म है दूसरों ने जो अभ्यास किया है वह जैनों से ही किया है कइ लोग केवल हट योग को ही योग मान रखा है पर जैनों में हटयोग की बजाय सहज समाधि योग को अधिक महत्व दिया हैं। महात्माजी ! योग साधना के पहला कुछ आत्म ज्ञान करना चाहिये कि योग की सफलता हो वरन् इटयोग केवल काया देश ही समझा जाता है इत्यादि मुनिजी की मधुरता का सन्यासीजी की भद्र आत्मा पर खुब ही प्रभाव पड़ा । सन्यासीजी के हृदय में जो जैनधर्म प्रति द्वेष था वह रफूचक्र होगया और श्रात्मज्ञान समझने की जिज्ञास पैदा होगई अत: आपने पूछा कि मुजी आप आत्मज्ञान किसको कहते हो और उसका क्या स्वरूप है यदि आपको समय हो तो समझाइये मैं इस बात को समझना चाहता हूँ । मुनि शान्तिसागर ने कहा सन्यासीजी बहुत खुशी की बात है मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आप श्रात्म का स्वरूप को समझने की जिज्ञासा करते हो और मेरा भी कर्तव्य है कि मैं आपको यथाशक्ति सम झाऊँ पर इस समय हमको अवकाश कम है कारण दिन बहुत कम रहा है हमें प्रतिक्रमणदि अवश्यक किया करनी है यदि कल आप हमारे वहां अवसर देखे या मैं आपके पास आ जाऊँ तो अपने को समय काफी मिलेगा और आत्मादि तत्व के विषय चर्चा की जायगी इत्यादि कहकर शान्तिसागर चला गया । प्रतिक्रमण क्रिया करने के बाद सब हाल सूरिजी को सुना दिया । रात्रि में सन्यासीजी ने सोचा कि जहां तक आत्म ज्ञानप्राप्त न किया जाय वहां तक मेरी विद्यायें किस काम की हैं? यदि मुनिजी आवें या न श्रावें मुझे सुबह जैनाचार्य के पास जाना और आत्म ज्ञान सुनाना चाहिये। क्योंकि आत्म के विषय जैनों की क्या मान्यता है ? सन्यासीजी ने अपने शिष्यों को भी कह दिया और दिन उदय होते ही अपने शिष्यों के साथ चल कर सूरिजी के मकान पर आये उस समय सूरिजी अपने शिष्यों के साथ सब मौनपने से प्रतिलेखन क्रिया कर रहे थे सन्यासीजी को किसी ने आदर नहीं दिया तथापि सन्यासीजी जैनमरणों की क्रिया देखते रहे जब क्रिया समाप्त हुई तो मुनि शांतिसागर ने सूरिजी से कहा कि यह सन्यासीजी आ गये हैं आप बड़े ही सज्जन एवं जिज्ञासु हैं ! सूरिजी ने बड़े ही स्नेह एवं वात्सल्यता के साथ सन्यासीजी का यथोचित सत्कार किया और अपने पास बैठाया । सूरिजी बड़े मुनि और तापस के आपस में संबाद ] १०३ Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only ८१७ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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