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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास देकर, उपकेशवंश ( महाजन संघ ) में मिला कर जैनियों की संख्या में खूब वृद्धि की। आप श्री ने अपने ज्ञान रूपी किरणों का प्रकाश चारों ओर फैलाते हुए, श्रज्ञानांधकार का नाश कर धर्म के प्रचार क्षेत्र को विशाल बनाया | आप श्री के इतने प्रभावशाली होने पर भी आपके जीवन के विषय के साहित्य का तो भाव ही है। इस ( साहित्याभाव ) का कारण ( मुसलमानों की धर्मान्धता रूप ) हम ऊपर लिख आये हैं । २५ आचार्य विक्रम सूरि के पट्ट पर प्राचार्य नरसिंह सूरि धुरंधर आचार्य हुए। श्राप श्री ने कई प्रान्तों में विचर कर जैन धर्म का खूब प्रचार किया। एक समय आप नरसिंहपुर नगर में पधारे। यहां पर एक मिथ्यात्व यक्ष भैंसे बकरों की बलि लिया करता था । और तद्ग्रामवासी भी मरणमय से भयभीत हो इस प्रकार की जीव हिंसा किया करते थे । अस्तु, आचार्य नरसिंहसूरि एक समय यज्ञायतन में रात्र पर्यन्त रहे जिससे यक्ष कुपित हो सूरिजी को उपसर्ग करने के लिये उद्यत हुआ । पर आचार्य श्री ने यक्ष को इस प्रकार उपदेश दिया कि उसने अपने ज्ञान से सोचकर जीवहिंसा छोड़ दी । ततः प्रभृति वह यक्ष श्राचार्य श्री का अनुचर होकर उपकार कार्य में सहायता पहुँचाने लगा । इस चमत्कार को देख बहुत से क्षत्रिय वगैरह जैन लोग सूरिजी के भक्त बन गये। सूरिजी ने भी इन सबको जैनधर्म की दीक्षा देकर उपके वंश में मिला दिये । इसके सिवाय भी सूरिजी ने अनेक स्थानों में विहार कर क्षत्रियों को जैन बनाये | उनमें, खुमाण कुल के क्षत्रीय भी थे। इतना ही क्यों पर उसी राज्य कुलीय समुद्रनाम के क्षत्रिय को होनहार समझ अपना शिष्य बनाया और अपने पट्टपर आचार्य बनाकर अपना सर्वाधिकार उसके सुपर्द किया । आचार्य नरसिंहसूरि ने 'यथा नाम तथा गुण' बाली कहावत को चरितार्थ कर अपना नाम सार्थक कर दिया । २६ आचार्य नरसिंह सूरि के पट्ट पर आचार्य समुद्र सूरि बड़े ही चमत्कारी श्राचार्य हुए। आप एक तो क्षत्रिय कुल के थे दूसरे कठोर तपके करने वाले । तपस्या से अनेक लब्धियां प्राप्त होती है। तथा देवी देव प्रसन्न हो तपस्वी महात्मा की सेवा में रहने में अपना अहोभाग्य समझते हैं । तपस्वी का प्रभाव साधारण जनता पर ही नहीं पर बड़े २ राजा महाराजाओं पर भी पड़ता है | आचार्य समुद्रसूरि जैसे तपस्वी थे बैसे साहित्य के व ज्ञान के समुद्र भी थे । आपश्री ने अनेक ग्राम नगरों में बिहार कर जैनधर्म का अच्छा उद्योत किया। भैंसे और बकरे की बलि लेने वाली चामुण्डा देवी को प्रतिबोध देकर मूक प्राणियों को अभयदान दिलाया । जिस समय श्राचार्य समुद्रसूरि का शासन था उस समय दिगम्बरों का भी थोड़ा २ जोर बढ़ गया था पर आचार्य समुद्रसूरि ने तो कई स्थानों पर शास्त्रार्थ कर, दिगम्बरों को पराजित कर श्वेताम्बर संघ के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया। इतना ही क्यों पर श्वेताम्बरों के नागृहद नाम के तीर्थ - जिसको कि दिगम्बरों ने दवा लिया था; श्राचार्य समुद्रसूरि ने पुनः ( उस तीर्थ को ) श्वेताम्बरों के कब्जे में करवा दिया। श्राचार्य समुद्रसूरि ने अपने शासन समय में जैनधर्म की अच्छी उन्नति की । "खोमाण राजकुलजोsपि समुद्रसूरि गच्छे, शशांककल्पः प्रवणः प्रमाणी । जित्वा तदा क्षपणकान् स्ववंश वितेने नागहृदे भुजगनाथ नमस्तीर्थे ।" २७ आचार्य समुद्रसूरि के पट्टधर आचार्य मानदेवसूरि (द्वितीय) हुए। आप श्री बड़े ह ९२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ आचार्य विक्रमसू www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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