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________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन भगवान महावीर की परम्परा २१ आचार्य मानतुंग सूरि के पट्ट पर श्राचार्य वीर सूरि हुए। आप श्री के जीवन के विषय का विशेष विवरण पट्टावलियों एवं प्रबंधों में नहीं मिलता। हां, इतना अवश्य उल्लेख है कि आचार्य वीर सूरि ने नागपुर में भगवान् नेमिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवा कर अपनी धवल यश चन्द्रिका को चतुर्दिक में विस्तृत की । इस घटना का समय वीर वंशावली में विक्रम सं० ३०० का लिखा है । नागपुरे नमिभवने -प्रतिष्ठया महित पाणि सौभाग्यः अभवद्वीराचार्य स्त्रीभिः शतैः साधिके राज्ञः ॥ १ ॥ इस प्रतिष्ठा के समय आपके द्वारा बहुत से अजैनों को जैन बना कर उपकेश वंश में मिलाने का भी उल्लेख है, इससे पाया जाता है कि, आचार्य वीरसूरि जैन धर्म के प्रचारक महाप्रभाविक श्राचार्य हुए थे I २२ आचार्य वीर सूरि के पट्ट पर आचार्य जयदेवसूरि हुए। आप श्री बड़े ही प्रतिभाशाली एवं जैन धर्म के प्रखर प्रचारक थे । श्राचार्य श्री ने रणथंभोर नगर के उत्तुंगगिरि पर भगवान् पद्मप्रभ तीर्थंकर के मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई, तथा देवी पद्मावती की मूर्ति की भी स्थापना की। आपका विहार क्षेत्र प्रायः मरुधर ही था । श्रपश्री ने अपने प्रभावशाली उपदेशामृत से बहुत से क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उपकेशवंश में सम्मिलित किये । उस समय जैसे उपकेशगच्छाचार्य एवं कोरंटगच्छाचार्य अजैनों की शुद्धि कर, जैन धर्म की दीक्षा देकर उपकेश वंश की संख्या बढ़ा रहे थे वैसे ही, वीर संतानिये भी उनमें सतत प्रयत्नों द्वारा हाथ बटा रहे थे ऐसा, उपरोक्त श्राचार्यों के संक्षिप्त जीवन से स्पष्ट ज्ञात होजाता है । २३ आचार्य जयदेव सूरि के पट्टधर आचार्य देवानंद सूरि हुए। आप श्री अतिशय प्रभावशाली थे | आपके चरण कमलों की सेवा कई राजा महाराजा ही नहीं अपितु कई देवी देवता भी किया करते I 1 आपश्री ने देव ( की ) पट्टन में श्रीसंघ के आग्रह से भगवान् पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई साथ ही ही कच्छ सुथरी प्राम के जैन मंदिर की प्रतिष्ठा भी बड़े ही समारोह के साथ करवाई। इन सुअवसरों पर बहुत से क्षत्रिय वगैरह को जैन बना कर उपकेशवंश में सम्मिलित किये। २४ आचार्य देवानंद सूरि के पट्ट पर आचार्य विक्रम सूरि हुए। आप धर्म प्रचार करने में विक्रमशाली अर्थात् मिध्यात्व, अज्ञान और कुरूढ़ियों का उन्मूलन करने में बड़े ही वीर थे। आप श्री का विहार क्षेत्र मरुधर, मेदपाट, आवंती, लाट और सौराष्ट्र था । एक समय आप गुर्जर प्रान्त में विहार करते हुए स्वरसाड़ी ग्राम जो सरस्वती नदी के किनारे था; पधारे। वहां अच्छे निर्वृति के स्थान में रह कर सरस्वती देवी का आराधन प्रारम्भ किया । उक्त आराधन काल में आप श्री ने पानी रहित चौविहार तप पूरे दो मास तक किया । जिससे देवी सरस्वती ने प्रसन्न हो आचार्य श्री के चरणों में नमस्कार किया और कहा श्राचार्य देव ! आपकी भक्ति पूर्ण आराधना से मैं बहुत प्रसन्न हुई हूँ और श्रापको वरदान देती हूँ कि ज्ञान में आपकी सदैव विजय होगी । आचार्य श्री ने देवी के वरदान को तथास्तु कह कर स्वीकार कर लिया । आचार्य श्री के तपः प्रभाव से समीपस्थ पीपल का वृक्ष जो कई असें से शुष्क प्राय था हरा भरा नव पल्लवित होगया । इससे जन समाज में श्राचार्य श्री के चमत्कार की खूब प्रशंसा एवं कीर्ति फैल गई। तत्पश्चात् श्राचार्य श्री ने धजधार गोल आदि कई स्थानों में विहार कर, अनेक जैनेतरों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा भ० महावीर की परम्परा ] Jain Education In ११६onal [ भोसवाल संवत् ६२० - ९५८ For Private & Personal Use Only a ९२१ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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