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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ९२०-९५८
प्रतिभाशाली थे | आपने श्रनेक ग्राम नगरों में विहार कर जैन धर्म की खूब प्रभावना की । आपके शासन
समय का हाल जानने के लिये भी साहित्य का अभाव ही दृष्टिगोचर होता है । केवल पटावलियों में थोड़ा सा उल्लेख मिलता है तदनुसार--आप अपने शरीर की अस्वस्थता के कारण सूरि मंत्र को विस्मृत कर चुके थे। पर जब आपका स्वास्थ्य अच्छा हुआ तो आपको बड़ा ही पश्चाताप हुआ । श्रतः पुनः सूरि मंत्र प्राप्ति के लिये आप श्री ने गिरनार तीर्थ पर जाकर चौविहार तपश्चर्या करना प्रारम्भ किया। पूरे दो मास
त होने के पश्चात् आप श्री के तपः प्रभाव से वहां की अधिष्ठात्री देवी अम्बिका ने आपकी प्रशंसा की व सूरि मंत्र की पुनः स्मृति करवादी । वीर शासन परम्परा में आप प्रभाविक आचार्य हुए हैं ।
भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा एवं उपकेशगच्छाचायों के साथ सम्बन्ध रखने वाले वीर परम्परा के २७ अचार्यों के जीवन क्रमशः लिखे हैं । पर इससे पाठक यह न समझ लें कि महावीर की परम्परा में केवल ये सत्तावीस ही पट्टधर आचार्य हुए हैं । कारण, हम ऊपर लिख आये हैं कि, गणधर सौधर्म से श्रार्य भद्रबाहु तक तो ठीक एक ही गच्छ चला आया था पर श्रार्यभद्रबाहु के शासन समय से पृथक २ गच्छ निकलने प्रारम्भ हो गये । तथापि - आर्य संभूति विजय और भद्रबाहु के पट्टधर स्थूलभद्राचार्य हुए पर उसी समय आर्य भद्रबाहु के एक शिष्य गौदास से गौदास नामक एक गच्छ पृथक निकला था अतः उस गच्छ की शाखा कहां तक चली यह तो अभी अज्ञात ही है । आगे चलकर श्रार्य स्थूलभद्र के पट्टधर भी दो आचार्य हुए ( १ ) महागिरी ( २ ) सुहस्ती । महागिरि शाखा के आचार्य बलिरसह हुए। इनकी परम्परा हम आगे चलकर लिखेंगे। दूसरे आर्य सुहस्ती - इनके शिष्यों की संख्या बहुत अधिक थी अतः इनके शाखारूप
पृथक २ गच्छ भी निकले जो आप श्री के जीवन के साथ ऊपर लिखे जा चुके हैं। आर्य सुस्ती पट्टधर दो मुख्य आचार्य हुए ( १ ) आर्य सुस्थी (२) श्रार्य सुप्रतिबुद्ध । एवं क्रमशः आर्य वज्रसेन के चार शिष्यों से चार शाखाएं निकली और बाद चंद्रादि चार शिष्यों से चंद्रादि चार कुल स्थापित हुए । इसमें ऊपर जो २७ पट्टधरों का जीवन हम लिख आये हैं वे केवल एक चंद्रकुल की परम्परा के ही हैं । इनके अलावा नागेन्द्र, निर्वृत्ति, विद्याधर ये तीन कुल तो वज्रसेन के शिष्यों के ही थे तथा श्रार्य सुम्थी की जो गच्छ शाखाएं निकली उनका परिवार तथा आर्य महागिरि एवं गौदास गच्छ का परिवार कितना होगा; इसके जानने के लिये जितना चाहिये उतना साधन नहीं मिलता है। खैर, मेरी शोध खोज से एतद्विषक जितना साहित्य मुझे हस्तगत हुआ वह यहां संग्रहित कर लिखा जा चुका है।
आर्य देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणः - श्राप आगमों को पुस्तकारूढ़ करने वाले के नाम से जैन संसार में मशहूर है । आप श्री ने नंदीसूत्र और नंदीसूत्र की स्थविरावली की रचना भी की थी। उक्त स्थविरावली के घर पर कई लेखकों ने आपको आर्य दुष्य गणि के शिष्य लिखा है तब कई लोगों ने आपको लोहित्याचार्य के शिष्य बताये हैं। पर वास्तव में आप श्रार्य संडिल्य के शिष्य थे ऐसा कल्ल सूत्र की स्थविरावली से प्रतीत होता है । इस प्रकार की विभिन्नता का खास कारण हमारी पट्टावलियां स्थविरावलियां ही है। कारण, ये परम्परा को लक्ष्य मैं रखकर लिखी गई हैं । जैसे ( १ ) गुरु शिष्य परम्परा (२) युगप्रधान परम्परा | गुरु शिष्य परम्परा में क्रमशः गण कुल शाखा और गुरु शिष्य का ही नियम है तव युगप्रधान स्थविरावली में गणकुल एवं गुरु शिष्य का नियम नहीं है किन्तु जिस किसी गण कुल शाखा में युग प्रवर्तक प्रभाविक आचार्य हुए हों उनकी ही क्रमशः नामावली आती है। नन्दी सूत्र की स्थविरावली गुरुक्रम
बहुत
के
भ० महावीर की परम्परा ]
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