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________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की नहीं पर युग प्रधान क्रम की स्थविरावली हैं । इसमें एक शाखा के नहीं पर कई शाखाएँ के आचार्यों के नाम हैं। यही कारण है कि नंदी स्थविरावली में दुष्य गणि के बाद देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का नाम आता है। यह यग प्रधान क्रम की गणना से ही है। कल्प स्थविरावली में आपको संडिल्याचार्य के शिष्य कहा है। दूसरे आचार्य मलयागिरि वगैरह ने तो आर्य देवर्द्धिगणि क्षमण जी को आर्य महागिरि की परम्परा के स्थविर बतलाये हैं पर, आप थे आर्य सुहस्ती की परम्परा के । श्रापश्री से करीब १५० वर्ष पूर्व भागम वाचना हुई थी एक मथुरा में आर्य स्कांदिल के अध्यक्षत्व में दूसरी वल्लभी नगरी में आर्य नागार्जुन के नाय. कत्व में । आर्य स्कांदिल आर्य सुहस्ती की परम्परा में थे तब आर्य नागार्जुन, आर्य महागिरि की परम्परा के प्राचार्य थे । इन दोनों स्थविरों ने दो स्थानों पर श्रागभवाचना की पर छदस्थावस्था के कारण कहीं २ अंतर रह गया वाद न तो वे दोनों प्राचार्य आपस में मिल सके और न उसका समाधान हो सका अतः उन पाठान्तरों के सामाधान के लिये ही पुनः बल्लभी नगरी में संघ सभा की गई और सभा में दोनों ओर के श्रमणों को एकत्रित किये गये । श्रार्य सुहस्ती एवं स्कांदिलाचार्य की संतान के मुख्य स्थविर थे आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण और आर्य महागिरि एवं आर्य नागार्जुन की परम्परा के श्रमणों में मुख्य आर्य कालकाचार्य थे । इन दोनों परम्पराओं में आगम वाचना के अन्तर के सिवाय एक दूसरा भी अन्तर था वह, भगवान महावीर के निर्वाण के समय का । आर्य देवद्धिगणि की परम्परा में अपने समय ( आर्य देवर्द्धि गणि के समय ) तक महावीर निर्वाण को ९८० वर्ष हुए ऐसी मान्यता थी तब, कालकाचार्य की मान्यता ९९३ वर्ष की थी । अतः ये दोनों स्थविर पृथक् पृथक् शाखा के ही थे। तीसरा-आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ने अपनी स्थविराक्ली में आर्य देवर्द्धिगणि को आर्य महागिरि की परम्परा के स्थविर कहकर वीगत् सत्तावीसवें पट्टधर लिखा है । जैसे-- "सरि बलिस्सह साई सामज्जो संडिलोय जीयधरो' अज्ज समुद्दो मंगु नंदिल्लो नागहत्थि य रेवइसिंहो खंदिल हिमवं नागज्जुणा य गोविंदा सिरिभूइदिन-लोहिच्च दूसगणिणोयं देवडढ़ो।" असौ च श्री वीरादनुसप्तविंशत्तमः पुरुषो देवर्द्धिगणिः सिद्धान्तान् अव्यवच्छेदाय पुस्तकाधिरूढानकार्षीत् । -मेरुतुगीय स्थाविरावली टीका ५ अर्थात्--(सौधर्म१, जम्बु२, प्रभव३, शय्यंभव४, यशोभद्र'५, संभूति , स्थूलभद्र, महागिरि८, बलिस्सह९, स्वाति १०, श्यामाचार्य ११, संडिल्य १२, जीतधर १३ समुद्र १४, मंगू१५, नंदिल १६, नागहास्ति ७, रेवति १८, सिंह१९, स्कंदिल २०, हेमवंत२१, नागार्जुन २२, गोविंद२३, भूतदिन्न२४, लोहित२५, दुष्यगणि२६ और देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण २७ । आर्य देवर्द्धिगणि ने नंदी स्थविरावली लिखी उसमें दुष्यगणि को ३१ वा पट्टधर लिखा है इससे देवद्धि ३२ वें स्थविर थे । तथाहि (१) आर्य सुधर्मा, (२) जम्बु, (३) प्रभव, (४) शय्यंभव, (५) यशोभद्र, (६) संभृतविजय, (७) भद्रघाहु, (८) स्थूलभद्र, (९) महागिरि, (१०) सुहस्ति, (११) बलिस्सह, (१२) स्वाति, (१३) श्यामाचार्य, (१४) सांडिल्य, (१५) समुद्र. (१६) मंगु, (१७) आर्य धर्म, (१८) भद्रगुप्त (१९) व (२०) रक्षित (२१) आनंदिल ९२४ [ आर्य देवऋद्धिगणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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