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________________ वि० सं० ५२०–५५८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सिद्धसूरि जैसे प्रभावशाली प्राचार्य के अध्यक्षत्व में प्रतिष्ठा का होना जिसमें भी विशेषता यह कि एक कोट्याधीश जैनेतर जैन बन कर तत्काल ही जैन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाना फिर तो कहना ही क्या था। मुनि शेखरहंस के उपदेश से सेठ सांगण ने एक घर देरासर भी बनवाया था। उनके लिये माणक की पार्श्वमूर्ति तथा नगर मन्दिर के लिये १२० अंगुल प्रमाण सुवर्ण की महावीर मूर्ति बनाई इस मूर्ति के नेत्रों के स्थान दो बढ़िया मणियां लगवाई वे गत्रिको भी दिन बना देती थी शेष सर्व धातु एवं पाषण की मूर्तियां भी तैयार करवा ली थी इस प्रतिष्टा एवं स्वधर्मी भाइयों को पहरामणि में सेठ सांगणने एककोटि द्रव्य व्ययकर खूब पुन्यानुबन्धी पुन्योपार्जन किया प्रतिष्टा बड़े ही धाम धूम के साथ हो गई जिससे जैनधर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ सूरिजी चन्द्रावती से बिहार कर शिवपुरी कोरंटपुर, भिन्नमाल, सत्यपुर, शिवगढ़, पाल्हिक, धोलगढ़ चरपट माडव्यपुर होते हुए जब उपकेशपुर पधार रहे थे तब इस खबर को सुन उपकेशपुर संघ के हर्ष का पार नहीं रहा। आदित्य नाग गौत्रीय गुलेच्छा शाखा के शाह पुरा ने तीनलाख द्रब्य व्ययकर सूरिजी के नगर प्रवेश का महोत्सव किया । "आधुनिक श्रद्धा बिहीन साधुओं के सामने प्राधा मील भी नहीं जाने वाले यह सवाल कर बैठते हैं कि एक नगर प्रवेश के महोत्सव में एक दो और तीन लक्ष रूपैये क्यों और किसमें खर्च किया होगा। यदि इतना ही द्रव्य किसी अन्य कार्य एवं साधर्मी भाइयों की सहायता में लगाया होता तो कितना उपकार होता ? इत्यादि। ___ "इस निर्धनता के युग में ऐसा सवाल उत्पन्न होना स्वाभाविक है पर उस समय का इतिहास पढ़ने से मालुम होगा कि उस समय ऐसा कोई क्षेत्र ही नहीं था कि जिसके लिये किसी से याचना की जाय तथा ऐसा कोई सानी भाई भी नही था कि वह दूसरों को आशा पर अपना जीवन गुजारता हो और न कोई साधर्मी भाईयों को इस प्रकार मंगता बनाना ही चाहता था यदि कोई किसी निर्बल साधर्मी भाई को देखते तो उसको धंधे रूजगार में लगा कर अपनी बराबरी का बना लेते थे। मन्दिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार एक एक व्यक्ति करवा देता था विद्या एवं ज्ञान प्रचार भी एक एक भावुक करता था तीर्थों की यात्रार्थ एक एक धर्म प्रेमी बड़े बड़े संघनिकाल कर यात्रा करवा देता था कालदुकाल में भी एक एक धनाढ्य करोड़ों द्रव्य व्यय कर देते थे फिर ऐसा कौनसा क्षेत्र रह जाता कि जिसमें वे अपना द्रव्य का सदुपयोग करें । आचार्यों के नगर प्रवेश महोत्सव में दो तीन लक्ष द्रव्य व्यय करना तो उनके लिये एक मामूली बात थी पर इस प्रकार की उदारता से उस समय के धर्मज्ञों के अंदर रही हुई देवगुरु धर्म पर श्रद्धा का पता चल सकता है कि उनकी देवगुरु धर्म पर कितनी श्रद्धा थी कि मामूली बात में वे लाखों रुपये व्यय कर देते थे-यही कारण था कि इस प्रकार शुभ भावना से उनके घरों में लक्ष्मी दासी बन कर रहती थी व अपने विदेशी व्यापार में इतना द्रव्य पैदा करते थे । इस प्रकार धन व्यय करते हुए भी उनके खजाने भरे हुए रहते थे उन लोगों के पुन्य कितने जबर्दस्त थे आप पिछले प्रकरणों में पढ़ आये हो कि किसी को पारस मिला तो किसी को चित्रावली मिली किसी को तेजमतुरी मिली तो किसी को सुवर्ण रस मिला किसी को देवताने निधान वतलाया तो किसी को देवी ने अखूट थेली देदी। इसपर भी वे कितने निस्पृही थे कि अपना जीवन सादा और सरल रखते थे ९०९ [ मार्मिक प्रश्न का उचित उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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