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________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन | [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ जितना द्रव्य देव गुरुधर्म की भक्ति में खरचते उतने को ही वे अपना समझते थे वे पिछले कुटम्ब के लिये न तो इतना फिक्र करते थे और न इतना संचय ही करते थे कारण उनको यह विश्वास था कि जीव सब अपने २ पुन्य लेकर आते है 'पूत सपूतो क्या धनसंचय पूत कपूतो क्यों धनसं चे ? इस सिद्धान्त पर उनकी अटल श्रद्धा थी इतना ही क्या पर उस जमाने के पुत्रादि कुटम्ब भी निश्चय वाले थे वे अपने पूर्वजों की सम्पति पर ममत्व या आशा तक नहीं रखते थे पर अपने तकदीर पर विश्वास रखते थे । हमने सैकड़ों दानेश्वरियों के जीवन पढ़े है पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिला कि किसी दानेश्वर पिता को अपना द्रव्य शुभकार्य में व्यय करते समय पुत्र ने इन्कार किया हो इतना ही क्यों पर ऐसे बहुत से पुत्र थे कि आपने पिता को दान करने में उत्साहित करते थे इत्यादि वह जमाना ही ऐसा था कि जनता अपने कल्याण की ओर अधिक लक्ष दिया करती थी ।" आचार्य श्री ने चतुर्विध श्री संघ के साथ भगवान महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा कर थोड़ी पर सारगर्भित देशनादी जिसका उपस्थित जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ जिस समय सूरिजी उपशपुर नगर में पधारे थे उस समय उपकेशपुर के शासन करता महाराजा उत्पलदेव की सन्तान पर - स्परा में राव हुल्ला राजा था रावहुल्ला के पिता दोहड़ जैनधर्म का उपासक था पर वाममार्गियों के संसर्ग से राहुल्ला वाममार्गियों की उपासना कर मांस मदिरा एवं व्यभिचार सेवी बन गया था बहुत से लोगों ने समझाया पर उसने किसकी भी नहीं सुनी एक जवानी दूसरी राज सत्ता तीसरा सदैव बाममार्गियों का परिचय | उपकेशपुर के श्रमेश्वर लोगों ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! उपकेशपुर का राजघराना शुरू से जैन धर्मोपा क था और इससे यहां के जैनों को जैनधर्म की आराधना में बड़ी ही सुविधा थी पर राव हुल्ता वामनागियों के अधिक परिचय में आकर मांस मदिरा सेवी बन गया अभी तो यह जैनधर्म से विशेष खिलाफ नहीं है पर भविष्य में न जाने इनकी संतान जैनधर्म के साथ कैसा बर्ताव रखेगी अतः पराव हुल्ला को कभी एकान्त में उपदेश दीवें इत्यादि । सूरिजी ने कहा ठीक है कभी रावजी वेंगे तो मैं अवश्य उपदेश करूंगा । पर वाममार्गी इस बात को ठीक समझते थे कि रावजी जैनाचार्य के पास जावेंगे तो न जाने वे जादूगर रावजी पर जादूकर अपना बना बनाया काम मिट्टी में न मिला दे ? अतः उन्होंने रावजी पर ऐसा पहरा रखा कि उनको क्षण भर अकेला नहीं छोड़ते कभी रमत गम्मत तो कभी सिकार कभी खेल तमाशे में साथ ही साथ में रखते यथा राजा तथा प्रजा । राव हुल्ला का थोड़ा थोड़ा प्रभाव जनता पर भी पड़ने लगा राजा के मुख्य कार्यकर्त्ता (दीवान) बापनाग गौत्रीय शाह मालदेव था और भी राजकर्मचारी सब महाजन ही थे पर वे रावजी को समझा नहीं सकते थे । एक समय किसी म्लेच्छ लोगों की सेना देश में लूट मार करती हुई उपकेशपुर की ओर आ रही थी, जिसकों सुन कर रावजी घबराये वाममार्गियों से परामर्श किया तो उन्होंने समय पाकर कहा, रावजी आप शाकभाजी के खाने वाले महाजनों के भरोसे पर राज को छोड़ दिया है पर सिवाय कलम चलाने के के ये लोग क्या कर सकते हैं आपको राज्य की रक्षा के लिये मांस भोगी वीरों को अच्छे पदों पर उपशपुर का राहुल्ला को जैन धर्म की दिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only ९१० www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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