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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१२३७
की चिन्ता सहित अंबा देबो के दर्शन पूजन किया उस समय आचार्यश्री ने अष्टम तप कर देवी की धाराधना की जिससे देवी आई और कहा कि राजा के भाग्य में संतान नहीं है राजा के भ्राता का पुत्र कुमारपाल है वह पुन्य प्रतापी और राज्य के योग्य है और भी नये राजाओं को जीतकर नाम कमावेगा इत्यादि । बाद सूरिजी से राजा ने सब हाल सुन कर वहां से पाटण आ गये ।।
क्षत्रियों में शिरोमणि देवप्रसाद जो राजा करण का भाइ था उसका पुत्र त्रिभुवनपाल और उसका पुत्र कुमारपाल जो राज लक्षण कर संयुक्त था देवी ने भी उसके लिये ही कहा था पर फिर भी राजा ने निमितादि शास्त्रों से निर्णय किया तो उन्होंने भी यही बतलाया। भवितव्यता बलवान होती है। सिद्धराज का कुमारपाल पर द्वेष था और उसको मरवा डालने का निश्चय किया था पर कुमारपाल को खबर होने से वह शरीर के भस्म लगा जटा बढ़ा कर एवं शिव भक्त होकर निकल गया। एक समय किसी ने आकर राजा को कहा कि यहाँ ३०० तापस आये हैं । जिसमें कुमारपाल भी है आप सबको भोजन के लिए आमन्त्रण करके देखें जिसके पैरों के चैत्य पद्म चक्र ध्वजादि चिन्ह हों वही तुमारा वैरी कुमारपाल है ऐसा समझ लेना। ठीक राजा ने सब तोपसों को भोजन का आमन्त्रण दिया और उनके पैर भी धोये जब कुमारपाल का वारा आया तो उसके पैरों में पद्मादि शुभ चिन्ह देख कर राजा जाण गया की यही मेरा दुश्मन है कुमारपाल भी समझ गया अतः वह अकस्मात् कमंडल लेकर चला तो वहाँ से हेमचन्द्रसूरि के उपाश्रय गया वहाँ ताड़ पत्रों का ढेर लगा हुआ था उसमें उसको छिपा दिया राजा के आदमी आये देखा पर नहीं मिला अतः चले गये । बाद किसी समय कुमारपाल जारहा था तो राजा के सवारों ने उसका पिछा किया इतने में एक कुम्हार का घर आया कुमारपाल के कहने से उसने अपने निबाड़ा में छिपा लिया। जब सवार निराश होकर चले गये तब कुम्हार के वहाँ से निकल कर कुमारपाल चल धरे और वह खम्मात नगर में पाया वहाँ एक उदायन नाम का बड़ा ही धनाढय मंत्री राज्य के काम करता हुआ रहता था उसके पास एक ब्रह्मचारी लड़का रहता था उसने मंत्री के पास जाकर कुमारपाल से सुना हुआ सब हाल कह सुनाया और कहा कि कुमारपाल भुखा प्यासा है कुछ खाने को दें ? पर उदायन ने राज भय से कुछ भी नहीं दिया और कहा कि उसको कहदें कि शीघ्र ही चला जावे । ठीक कुमारपाल चार दिनों का मुखा प्यासा था फिर भी वह चल कर हेमाचार्य के उपाश्रय में आया हेमाचार्य वहाँ चातुर्मास किया था कुमारपाल का आदर कर कहा कि हे भवी नरेश। तुमको सातवे वर्ष में राज की प्राप्ति होगी। इस पर कुमारपाल ने गुरु का परम उपकार माना और उसके मांगने पर गुरु ने श्रावक को कह कर ३२ (चलनी रुपये) दिलाया और कहा कि अब तुम्हारे पास दरिद्र नहीं श्रावेगा। बस कुमारपाल गुरु को नमस्कार कर वहां से देशान्तर चला गया कभी कापड़िया के रूप में कभी यति सन्यासी के रूप में कभी अवधूत के रूप में भ्रमन करता था कुमारपाल की राणी भोपाल देवी भी पति का पिच्छा नहीं छोडा वह भी प्रच्छन्नपण उनके पिच्छे पिच्छे भ्रमन किया करती थी इस प्रकार कुमारपाल ने सुख दुख का अनु भव करते हुए सात वर्ष ज्यों त्यों कर निकाल दिये।
संवत् ११९९ में सिद्धराजा का देहान्त हो गया। न जाने कुमारपाल के भाग्य ने ही उसको खबर दी हो वह नगर के बाहर श्रीवृक्ष के नीचे श्राकर बैठ गया ठीक उस समय दुर्गादेवी ने मधुर स्वर से कुमारपाल को गाना सुनाया कुमारपाल ने कहा हे ज्ञाननिधान देवी ! यदि मुझे राज मिलने को हो तो तू मेरे मस्तक पर बैठकर मधुर गाना सुना । ठीक देवी ने ऐसा किया और कहा कि निश्चय ही तुमको राज मिलेगा बाद
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सिद्धराज का कुमारपाल पर द्वेष
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