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वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
यह कब हो सकता है तथा मालवा कोई भारत के एक कोने में छिपा हुआ प्रान्त नहीं है तथा सांची में कोई एक दो छोटा बड़ा स्तूप नहीं कि उनके कानों या नजरों से छिपा रह सके दूसरा उनको पुस्तकों में मालवा प्रान्त के बोद्ध स्तूपों का उल्लेख भी मिलता है पर सांची स्तूप के लिये थोड़ी भी जिक्र नहीं मिलती है इससे स्पष्ट हो जाता है कि बोद्ध धर्म को मानने वाले मालवा प्रान्त में गये थे पर सांची के स्तूपों को उन्होंने बोद्धधर्म के नहीं पर जैनधर्म के समझ कर अपनी डायरी में नौंध नहीं की थी इससे सांची के स्तूप जैनधर्म के होने ही स्पष्ट सिद्ध होते हैं। इनके अलावा सांची स्तूप में कई कटघरों पर 'महाकाश्यप' नाम भी खुदे दृष्टि गोचर होते हैं यह भ० महावीर के बंश की स्मृति करवा रहे हैं भ० महावीर का काश्यपगोत्र था जब समान पुरुषों के लिये काश्यप शब्द काम में लिया जाता तब महापुरुषों के लिये महा काश्यप लिखा हो तो यह यथार्थ ही कहा जा सकता है।
इत्यादि प्रमाणों एवं सबल युक्तियां द्वारा प्रामान् शाह ने अपनी मान्यता को परिपुष्ट कर बतलाई है । और आपका विश्वास है कि भ० महावीर का निर्वाण इसी प्रदेश में हुआ था और आपके मृत शरीर का अग्नि संस्कार के स्थान भक्त लोगों ने जो स्तूप बनाया था वही मूल स्तूप सिंह स्तूप के नाम से श्रोल
स्नाया जाता है।
श्रीमान् शाह के कथन में कई लोग यह सवाल पैदा करते है कि यदि भ० महावीर का निर्माण विदिशा नगरी में हुआ माना जाय तो फिर बर्तमान जैन समाज की मान्यता पूर्वदेश की पावापुरी की है यह क्यों और कब से हुई ? जब कि कल्पसूत्र जैसे प्राचीन ग्रंथों में लिखा मिलता है कि पावा परी के हस्तपाल राजा की रथशाला में भगवान महावीर ने अन्तिम चतुर्मास किया और वहीं पर आपका निर्वाण हुआ तथा विक्रमीय सोलहवी शताब्दी के विद्वानों ने भी यही कहा कि "पूर्वदिशी पावापुरी, ऋद्धि भरीरे, मुक्ति गये महावीर, तीर्थ ते नमूरे" इत्यादि इस सवाल के उत्तर में शाह समाधान करता है कि पूर्व दिशा का मतलब पूर्व देश से नहीं पर उज्जैन नगरी से है कारण विदिशा नगरी उज्जैन से पूर्व दिशा में है और भगवान महावीर जैसे महान पुरुष के देह का दाहन होने से उस नगरी को पापापुरी कही है (शायद उस समय वहाँ हस्तपाल नाम का कोई राजा राज करता हो) अब वर्तमान की मान्यता के लिये यह समझना कठिन नहीं है कि भारत में कई बार ऐसे ऐसे महा भयंकर जम संहारक दुकाल पड़े थे कि कई नगर स्मशान बन गये थे और बाद में कई नये नगरों का निर्माण हो गये थे और यात्रु लोगों की सुविधा के लिये कई स्थापना नगरियों भी मान ली गईथी जैसे भ० वासपूज्य का निर्वाण अंगदेश को चम्पानगरी में हुआ था पर वर्तमान में मगद देश की चम्पानगरी को बारहवें वासपूज्य तीर्थकर की कल्याण भूमि समझ कर यात्रा करते हैं जब कल्याणक भूमि का तीर्थ था अंगदेश की चम्पानगरी में परन्तु यात्रु लोगों की सुविधा के लिये मगद देश की चम्पा को ही अंगदेश की चम्पानगरी मान ली है इसी प्रकार भ० ऋषभदेव का जन्म कल्याणक अयोद्या नगरी में हुआ था और उस अयोद्या के पास अष्टापद् तीर्थ होना शास्त्र में लिखा है तब वर्तमान में पूर्व देश की अयोद्या को ही ऋषभदेव के जन्म कल्याणक मान लिया गया है इसी प्रकार नाम की साम्यता के कारण विदिशा की पावापुरी के स्थान पूर्वदिशा की पवापुरी को भ० महावीर का निर्वाण कल्याणक भूमि मान ली हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है. और सोहलवीं शताब्दी में रची गई कवितो में उस समय का प्रचलित स्थान को ही तीर्थ लिखा हो तो यह भी संभव
भ० महावीर की निर्वाण भूमि
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