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________________ वि. सं. ७७८-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११ वर्ष की उम्र में सूरिपद वि० सं०८९५ के भाद्र शु० अष्टामी को स्वाति नक्षत्र में आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय पामराजा का पौत्र भोजकुमार अपने मामा के सामन्तों के साथ कन्नौज आया और सुना कि बप्पभट्टिसरि का स्वर्गवास हुआ है तो बहुत विलाप झिया आखिर चिता बना कर सरिजी के मृत शरीर को चिता में पधराया । उस समय भोजकुमार ने विचार किया कि पिताह का मरण हा श्राज उनके गुरु का भी मरण हुश्रा अब मेरा क्या होगा कारस पिता तो मुझे मारना चाहता है तो मेरे यही मार्ग है कि मैं गुरुदेव के साथ अग्नि में जल जाऊं। इस पर भोजकुमार की माता आई और पुत्र कों बहुत समझाया अतः भोज, माता के वचनों को शिरोधर्य कर सरिजी का अग्नि संस्कार कर चिन्तातुर होता हुआ मामे के यहाँ चला गया। इधर राजा दुदुक धर्म कर्म से पतित हुआ वैश्या में आसक्त था । राज्य की कुछ भी सार सम्भाल नहीं करने से जनता दुःखी हो रही थी। एक समय भोजकुमार कन्नौज में आया और सज्जनों की मनाई होने पर भी राजसभा की ओर जाने लगा। आगे द्वार पर एक माली बीजौरे के ३ फल लिये बैठा था । राजकुमार जान कर उसने उन फलों को भेंट दिया । भोजकुमार राजसभा में जाते ही दुंदुक राजा सिंहा. सन पर बैठा था तो उसकी छाती में तीनों फलों की ऐसी मारी की उः के प्राण पखेरु उड़ गये। बस, फिर क्या था ? उसके मृत देह को एक द्वार से निकाल कर भोजराज सिंहासन पर बैठ गया । गाजा वाजे और विधि से भोज का राज्यभिषेक कर सब मन्त्री उमराव और नागरिक मिल सब भोज को राजा बना उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। एक समय राजा भोज श्राम बिहार मन्दिर) में दर्शन करने को गया था वहां बप्पभट्टिसरि के दो शिष्य अध्ययन कर रहे थे। राजा ने साधुओं का अभ्युत्थानादि नहीं किया और राजा ने सोचा कि ये साधु व्यवहार कुशल नहीं हैं अतः उन्होंने मोढेरा से नन्नप्रभसरि एवं गोविन्दसरि को बुलाये और वे भी सत्वर कन्नोज में आये । राजा भोज ने दोनों ही सरियों का बड़ा ही महोत्सव कर नगर प्रवेश करवाया और उनको गुरु पद पर स्थापन कर नन्नसरि को पुनः गुजरात में जाने की प्राज्ञा दी और गोविन्दसूरि को अपने पास रखा। चरित्रकार फरमाते हैं कि राजा आम ने जैनधर्म की काफी सेवा की पर गजा भोज ने उनसे भी जैनधर्म की विशेष उन्नति की । जैनधर्म के प्रचार को खूब बढ़ाया और मन्दिर मतियों की प्रतिष्ठा करवाई। प्राचार्य बप्पभट्टिसूरि चैत्यवासी होते हुए भी ! जैन संसार में एक महान प्रभाविक आचार्य महापुरुषों का गिनती के प्राचार्य थे। वादी कुन्जरकेशरी, बालब्रह्मचारी, राजपूजित वगैरह अनेक विरूदों से विभूषित थे। आपने अपने दीर्घ जीवन में जैन शासन की उन्नति कर जैनधर्म के उत्कर्ष को खूध बढ़ाया। ऐसे प्रभा. विक पुरुषो से ही जैनधर्म दे दीप्यमान व गजधर्म से गर्जना करता था। राजा आम ने कन्नोज में १०१ हाथ ऊंचा मन्दिर वनवा कर अठारह भार सोने की मूर्ति को प्रतिष्ठा करवाई तथा गिरनार शत्रुञ्जय के तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाल कर तीर्थ यात्रा की । राजा श्राम के एक रानी वैश्य कुल की थी। उनकी सन्तान जैनधर्म पालन करती हुई राज्य के कोठार का काम करने लगी । उनके विवाहादि सब व्यवहार उपकेशवंश के साथ होने लगे इसलिये वे उपकेश वंश में राज कोठारी कहलाये । इस परम्परा में श्रीमान् कर्माशाह हुआ। उसने वि० सं० १५८७ पुनीत तीर्थश्री शत्रुजय का उद्धार सूरिजी का स्वर्गवास और राजाभोज १२१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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