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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ कर हा पुत्र ! तू महेन्द्रसूरि के पास दीक्षाले तब ही मैं चिन्ता मुक्त हो सकता हूँ। पिता के वचन सुन कर धनपाल के क्रोध का पारावार नहीं रहा । उसने कहा - पिताजी ! शूद्रो से निन्दित्त प्रतिज्ञा को मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूँ । वेद वेदांग को जानने वाला ब्राह्मण नास्तिक जैन धर्म को स्वीकार करने मात्र से हो अपने पूर्वजों सहित नरक में गिर कर दुःखी होजाता है अतः में किसी भी हालत में आपका कहना स्वीकार नहीं कर सकता हूँ फिर आप अपनी इच्छा हो सो करें, इतना कह कर धनपाल चला गया । थोड़ी देर बाद शोभन श्राया । उसने पिताजी को चिन्तातुर देख कर पिताश्री को चिन्ता का कारण पूछा तो सर्वदेवविप्र ने उसको भी सर्व हाल सुना दिया । अपने दीक्षा के समाचारों को सुन कर शोभान को बहुत खुशी हुई। उसने कहा - पिताजी ! मैं आपकी श्राज्ञा को शिरोधार्य करता हूं कारण, एक तो पवित्र जैनधर्म जिससे की आराधना से ही आत्म-कल्याण है और दूसरा पिताश्री का सहर्ष प्रदेश, भला इससे बढ़ कर और क्या सुश्रवसर हाथ लग सकता है ? पुत्र के वचनों को सुन कर सर्वदेव को बड़ा हर्ष हुआ । वह अपने कार्य से निवृत्त हो शोभन को साथ लेकर आचार्यश्री के पास गया । और शोभन को सामने रख कर सूरिजी से प्रार्थना की-- दयानिधान ! मेरे दो पुत्रों में से यह शोभन हाजिर है । इसको दीक्षा देकर मुझे ऋण से उऋण करें। सूरिजी ने शोभन की परीक्षा कर उसी समय स्थिर लग्न में उसे दीक्षा दे दी। बाद में धनपाल के भय से वे वहां से विहार कर क्रमशः पाटण पहुँच गये । जब धनपाल को खबर हुई कि पिताजी ने शामन को जैनदीक्षा दिलवा दी है तो उसके कोप का परावार नहीं रहा । उसने अपने पिताजी को यहां तक कह दिया कि पिताजी ने द्रव्य के लोभ से ही अपने पुत्र को नास्तिक एवं शूद्र जैनों को अर्पण कर दिया है । पश्चात् धनपाल ने सर्वदेव को पृथकू भी कर दिया पर उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ। उसने राजा भोज को उलट पुलट समझा कर मालवा एवं धारानगरी में के आवागमन को ही बंद करवा दिया । जैन गुरु कृपा से मुनि शोभन ज्ञानभ्यास कर धुरंधर विद्वान बन गये । कालान्तर में मालव प्रान्तीय संघ पाटण में आया और उसने महेन्द्रसूरि से प्रार्थना की-- भगवन् ! मालवाप्रान्त से जैनश्रमणों के निर्वासित हो जाने के कारण पाखण्डियों का जोर बहुत ही बड़ गया है अतः कृपा कर या तो आप स्वयं पधारे या विद्वान् मुनि को हमारे यहां भेजने की कृपा करें जिससे क्षेत्र पुनः जैनधर्ममय हो जाय । सूरिजीने मालवसंघ का कहना ठीक समझ कर अपने समीपस्य मुनियों की ओर देखा तब मुनि शोभन ने कहा गुरुदेव ! मालवा प्रान्त में धर्म प्रचारार्थ जाने का आदेश मुझे मिलना चाहिये मैं धारा नगरी जाकर मेरे ज्येष्ठ भ्राता धनपाल को प्रतिबोध करूंगा । शोभन के उत्साह पूर्ण वचनों को सुन कर सूरिजी ने कई गीतार्थ मुनियों के साथ मुनि शोभन को मालव प्रान्त की ओर विहार करवा दिया । क्रमशः मुनि शोभन चलकर धारा नगरी में आगये । शोभन मुनि ने अपने दो मुनियों को धनपाल के वहां भिक्षा के लिये भेजे । जिस समय मुनि, भिक्षार्थ धनपाल के घर गये उस समय धनपाल स्नान करने को बैठा था । साधुओंने धर्मलाभ दिया तो धनपाल की स्त्री ने कहा यहां क्या है ? इस पर धनपाल ने कहा- अतिथि अपने घर से खाली हाथ जावें यहठीक नहीं अतः जो कुछ भी हो मुनियों की सेवा में हाजिर कर दो। धनपाल की स्त्री ने उन्हें दग्ध अन्नदिया जिसको मुनियों ने प्रण कर लिया । बाद में दही के लिये कहा तो मुनियोंने पूछा-दही कितने दिन का है ? धनपाल की स्त्री आचार्यश्री और सर्वदेव त्रि Jain Education International For Private & Personal Use Only १२३५ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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