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________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्य महेन्द्र सूरि अवन्तिका प्रदेश में स्वर्ग सदृश धारानगरी एक समृद्धशाली नगरी थी यहां पर नीतिनिपुण पण्डितमान आश्चयदाता राजाभोजराज्यकरता था । मध्य-प्रान्तीय संकाश्यनगर निवासी देवर्षि नामकब्राह्मणकापुत्र पर्वदेवविप्र भी धारानगरी में ही रहता था। वह ब्राह्मणों के प्राचार विचार में निपुण व वेदवेदांगपुराणादिवैद. कधर्म शास्त्रोंमें पारंगत था । उस सर्वदेव के जय विजय की भांति धनपाल और शोभन नाम के दो पुत्र थे। चन्द्रकुल रूप आकाश में सूर्यवत् वर्चस्वी प्राचार्य श्री महेन्द्रसूरि भू भ्रमन करते हुए एक समय धारा नगरी में पधारे । जब सर्वदेव विप्र ने आचार्यश्री का आगमन सुना तो वह चल कर सूरिजी के पास अाया और बहुमान भक्ति पूर्वक वंदन कर तीन दिन रात्रि पर्यन्त सूरिजी की सेवा में रहा ! तीसरे दिन प्राचार्य श्री ने पूछा हे द्विजोत्तम ! बोल तेरे कुछ काम है ? सर्वदेव ने कहा-भगवन् ! मेरे पिताजी राज्यमान थे । उन्होंने लाखों रुपये एकत्रित किये और वह निधान अद्यावधि मेरे घर में है पर, अज्ञात है। प्रभो ! आप ज्ञानी हैं अतः कपाकर हमें किसी तरह सुखी बनावें । आचार्यश्री ने कहा-यदि हम द्रव्य बतलार्दै तो तू मुझे क्या देगा ? विप्र ने कहा-भगवन् ! जितना द्रव्य मुझको मिलेगा उसका आधा द्रव्य में आपको दूगा सूरिजी ने कहा-केवल द्रव्य ही क्या ? तेरे घर में जो कुछ भी अच्छी वस्तु हो उसका आधा भाग हमको देना । सवदेव विप्र ने सूरिजी के उक्त वचन को सहर्ष स्वीकार कर लिया तथापि इस बात को विशेष दृढ़ करने के लिये कुछ मनुष्यों को साक्षी बना लिये जिससे भविष्य में कोई भी अपने भावों में परिवर्तन कर नहीं सके । श्राचार्य श्रीसर्वदेव के वहां गये और अपने ज्ञान एवं स्वरोदय के बल से उसको निर्दिष्ट स्थान बतादिया जिसको खोदने से तत्काल चालीस लक्ष स्वर्ण मुद्राएं भूमि से निकल आई । विप्रदेव स्व प्रतिज्ञानुसार वीस लक्ष स्वर्ण मुद्राएं प्राचार्यश्री को देने लगा पर सूरिजी ने स्वर्ण मुद्राओं के लिये सर्वथा इन्कार करदिया और कहा-मैं तेरे घर से मेरी इच्छा होगी वही आधी वस्तु ले लूंगा। इस तरह एक वर्ष व्यतीत हो गया। आखिर सर्वदेव ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मैं सूरिजी के ऋण से मुक्त न होऊंगा तब तक, घर पर नहीं जाऊंगा । इस पर सूरिजी ने कहा-तेरे दो पुत्र हैं उसमें से एक पुत्र मुझे दे दे । सूरिजी के उक्त वचन सुन सर्वदेव विचार मग्न होगया और चिन्तातुर बनकर एक खाट पर जा पड़ा। इतने में धनपाल वहां आगया और अपने पिता को चिन्तातुर देखकर कहने लगा पिताजी ! आपके पास पुष्कल द्रव्य है और हम दोनों भाइयों जैसे आपके पुत्र हैं फिर आपको चिन्ता किस बात की ? पिता ने अपनी चिन्ता का सब हाल कह इस्थमुतेजित स्वान्त स्तेनासौ निर्ममे बुद्ध । अज्ञ दुर्बोध सम्बन्धों प्रस्तावाष्टक सम्भताम् ॥ ९५॥ रम्यामुपमितिभवप्रपञ्चायां महाकथम् । सुबोध कविता विद्वदुतमाङ्ग विधूननीम् ॥ ९६ ॥ भ्रान्तचित्ताकदापि स्याद् हेत्वाभासैस्तदीयकैः। अर्थी तदागम श्रेणेः स्वासिद्धान्त पराडमुखा ॥ १.४॥ उपार्जितस्य पुण्यास्य नाशत्वं प्रापस्यसि ध्रवम् । निमित्तत इदंमन्ये तस्मान्मत्रोद्यमी भव ।। १.५॥ अथचेदवलेपस्ते गमने न निवर्तते । तथापि मम पार्श्वत्वमागा वाचा ममैकदा ॥ १०६॥ रजोहरणा स्माकं व्रताना: समप्पे ये । इत्युक्त्वा मौनस्मतिष्टेद् गुरुश्वित्तव्याथा धरः ॥ ७ ॥ आचार्य हरिभद्रो में धर्म बोध करो गुरुः प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्य निवेशिता ॥ १३० भनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दन संभया। मदार्थ नित्तिा । येन वृतिर्ललितविस्तरा ॥ १३१ १२३४ आचार्य महेन्द्रसरि का जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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