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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १०३१.१०६०
से नहीं किये किन्तु, अपना पवित्र कर्तव्य समझ कर मानवता के ध्येय हृदयङ्गम कर उक्त कार्यों में भाग लिया।
शा. श्रासल आज पूर्ण समृद्ध एवं सुखी था। लक्ष्मी श्राज उसकी चरण सेविका पन चुकी थी पर धन के थोथे मद में वह मदोन्मत्त नहीं हुआ । उसे अपने पहिले की जीवन की दुःख मय कथा याद थी। आचार्यश्री के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा की उसके हृदय पर छाप थी । उसकी यही मनोगत भावना थी कि मैं पूज्यआचार्य देव को बुलाकर अपनी मनोकामना को सफल बनाऊं । बस, उक्त भावना से प्रेरित हो उसने श्राचार्यश्री की खबर मंगवाई तो मालूम हुआ कि प्राचार्यदेव इस समय डामरेल में विराजमान हैं। सूरीश्वरजी के विराजने के निश्चित समाचारों से उसके हृदय में नवीन स्फूर्ति एवं क्रान्ति की जागृति हुई। वह तत्काल कई भावुकों को लेकर प्रार्थना के लिये डामरेल गया । सूरीश्वरजी की कृपा पूर्ण दृष्टि की कृतज्ञता को प्रगट करते हुए आसल, उनके चरण कमलों में गिर पड़ा । मालपुर पधारने की श्राग्रह पूर्ण प्रार्थना करने लगा । सूरिजी को अब तक यह मालूम नहीं था कि निर्धन आसल आज श्रीमंत शिरोमणि बना हुआ है किन्तु जब साथके मनुष्यों से आसल के अथ से इति तक वृत्तान्त सुने तो सूरिजी को भी पूरा संतोष एवं आनंद हुआ।
सूरिजी ने आसल के सामने देखते हुए कहा कैसे हो भाग्यशाली ! आसल-गुरुदेव ! आपकी कृपा एवं अनुग्रह पूर्ण दृष्टि से पहला भी आनन्द था, अभी भी आनंद है और भविष्य में भी आनंद ही आनंद रहगा। प्रभो । कृपाकर अब शीघ्र ही मालपुर पधार कर मेरी प्रतिज्ञा को सफल बनावें । श्रासल के इस कथन से तो सूरिजी की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । उनके हृदय में यह कल्पना थी कि आसल धनावेश में अपने कर्तव्य को विस्मृत कर चुका होगा पर आसल को इस अवस्था में कर्तव्य पराङ्मुख होने के बदले कर्तव्याभिमुख देख कर उन्हें बहुत संतोष हुश्रा।
- सूरिजी ने श्रासल की प्रार्थना को स्वीकृत कर डामरेल नगर से विहार कर दिया । क्रमशः छोटे बड़े प्रामों में होते हुए आचार्य देव मालपुर पधार गये । शा. श्रासल ने नव लक्ष रुपया व्यय कर आचार्य देव का शानदार नगर प्रवेश महोत्सव करवाया। ऐसा अवसर एवं ऐसा उत्सव आज मालपुर के लिये सर्व प्रथम ही था । साधर्मी भाइयों को पहरामणी एवं बाचकों को पुष्कल दान दिया।
एक समय आसल सूरिजी के पास गया और वंदन करके अर्ज करने लगा-भगवन् ! आपके सामने की हुई प्रतिज्ञा को मैं विस्मृत नहा कर सकता हूँ पर, मेरी यह आन्तरिक इच्छा है कि आपश्री का चातुर्मास मालपुर में होजाय तो मैं कुछ द्रव्य का शुभ कार्यों में व्यय कर हस्तागत द्रव्य का सदुपयोग करू श्री शत्रुजय तीर्थश का एक संघ निकाल कर, यात्रा करूं। प्रारम्भ करवाये हुए जिनालय की प्रतिष्ठा करवा कर गृहस्थ धर्म की आराधना करते हुए पूज्यश्री के चरण कमलों में भगवती दीक्षा को प्रहण कर अपनी की हुई प्रतिज्ञा को सफल बनाऊं । सूरिजी ने कहा-आसल ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है । तेरी ये योजनाएं भी अच्छी हैं। शासन की उन्नति एवं प्रभावना करना, यह भी आत्मोन्नति का एक मुख्य अङ्ग है। धर्म प्रभावना करना एवं वीतराग प्रणीत धर्म में अटूट श्रद्धा रखना तीर्थङ्कर नाम गोत्रोपार्जन के कारण हैं अतः तेरे उक्त विचार समयानुकूल श्रादरणीय हैं।
सूरिजी का व्याख्यान नित्यनियमानुसार हमेशा होता ही था । व्याख्यान श्रवण से जनता पर उसका शाह आसल के अद्भुत कार्य
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