________________
वि० सं० ६३१-६६०]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पर्याप्त प्रभाव पड़ा वे सोबन लगे कि यदि किसी तरह से चातुर्मास का अवसर हाथ लग जाय तो हम अपनी व्याख्यान श्रवण ने अतृप्त प्यास को आगम श्रवण जल से शांत कर सकें। अस्तु, समयानुसार एक दिन राव कानड़ादि सकल श्रीसंघ ने सूरीश्वरजी की सेवा में च तुर्मास की आग्रह पूर्ण प्रार्थना की । आचार्यश्री ने भी भविष्य के लाभ का कारण को सोचकर श्रीसंघकृत प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार करली । सर्वत्र हर्ष के वादित्र बजने लगे । जो कोई आचार्यश्री के चातुर्मास के निश्चय को सुनता हर्षोन्मत्त होजाता । शा. श्रासल की प्रसन्नता तो अवर्णनीय थी । उसको तो अपनी भावना सफल करने का अच्छा अवसर ही हस्तगत हुश्रा था। जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव, स्नान पूजा, प्रभावनादि कार्य भी बड़े उत्साह पूर्वक प्रारम्भ कर दिये गये।
शाह आसल, महा प्रभावक पञ्चमाङ्ग श्रीभगवती सूत्र बड़े ही समारोह पूर्वक अपने घर लेगया। पूजा, प्रभावना, स्वामी वात्सल्यादि उत्सवों को करते हुए सूत्र को हस्ति पर आरुढ़ कर बड़े ही जुलूस के साथ सवारी चढ़ाकर श्रीश्राचार्यदेव को अर्पण किया। शाह श्रासल एवं मालपुर के सकल संघ ने हीरा पन्ना, माणिक, मुक्ताफलादि से ज्ञान पूजा की । इस ज्ञान पूजा में एक करोड़ रुपयों का द्रव्य जमा हुआ था । इस द्रव्य में गुरु गौतम स्वामी के द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न की स्वर्ण मुद्रिका से पूजा की गई वह भी शामिल था । इसप्रकार ज्ञान खाते के एकत्रित द्रव्य का सदुपयोग करने के लिये वर्तमान जैन साहित्य एवं आगमों को लिखवाकर मालपुर में ज्ञान भण्डार स्थापित कर देने का निश्चय किया गया।
सूरिजी के व्याख्यान की छटा और तत्व समझाने की शैनी इतनी रोवक, सरस एवं उत्तम थी कि साधारण जनता भी सुनकर बोध को प्राप्त हो जाती । राव कानड़ तो सूरिजी का इतना भक्त होगया कि वह एक दिन भी व्याख्यान श्रवण से वञ्चित न रह सका । वह तो आचार्य देव की व्याख्यान शैली से इतना प्रभावित हुआ कि उसे बाममार्गियों के अत्याचार एवं आचार व्यवहार की पोपलीला से घृणा श्राने लगी। शुद्ध, पवित्र एवं आत्मकल्याण में साधकतम जैन धर्म ही उसे सारभूत तत्व मालूम होने लगा। यावत जैनधर्म को स्वीकार कर उसके प्रचार में वह यथासाध्य प्रयत्न शील भी हुआ 'यथा राजा तथा प्रजा' की लोकक्त्यनुसार बहुत से लोगों ने मिथ्या मतों का त्याग कर जैनधर्म स्वीकार किया। इस तरह सूरिजी महाराज के विराजने से मालपुर में जैनधर्म की आशातीत प्रभावना हुई।
इधर अक्षय निधि के स्वामी शाह श्रासल की ओर से द्रव्य व्यय की खुल्ले हाथों से छूट थी। श्रासल की ओर से ही पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्यादि विशेष परिमाण में होरहे थे । इधर मन्दिर का कार्य भी अविरत गति से प्रारम्भ था । कारीगरों एवं मजदूरों की संख्या में कार्य शीघ्रता के लिये पर्याप्त वृद्धि कर दीगई कारण, आसल को जल्दी ही गृहस्थ धर्माराधना पूर्वक संसार का त्याग करना था ।
अब सिर्फ एक संघ निकालने का कार्य ही रहा था। इसके लिये भी सूरिजी से परामर्श कर एक सुंदर योजना तैय्यार करली । चातुर्मास वसनानंनतर तत्काल श्रीसंघ से अनुमति लेली और बहुत दूर दूर तक आमंत्रण भेजकर विशाल संख्या में चतुर्विध संघ को मालपुरा में बुलवा कर उनका पूजा सत्कार किया एवं विशाल संख्या में आचार्य देव के नेतृत्व एवं शा. आसल के संघपतित्व में शत्रुजय गिरनारादि तीथों की यात्रा के लिये संघ रवाना हुआ। क्रमशः यात्राओं को करके संघ पुनः मालपुर आगया। संघ के स्वस्थान श्राते ही तत्क्षण मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया । मन्दिर की प्रतिष्ठानंतर स्वामीवात्सल्य
१०५४
सूरिजी का मालपुर में व्याख्यान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org