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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०३१-१०६० एवं स्वधर्मी भाइयों में पुरुषों को सुवर्ण माला और बहिनों को सुवर्ण चूड़ा तथा मुद्रिकाएं की परामणी एवं याचकों को पुष्कल द्रव्य का दान दिया तथा सात क्षेत्रों में भी बहुत धन देकर कल्याण कारी पुन्योपार्जन किया । जिससे आसल की धवल कीर्ति दिगान्त व्यापक होगई । इन सब कामों में आसल ने तीन करोड़ रुपये व्यय कर दिये । अन्त में अपने पुत्र पोलाक को घर का भार सौंप कर श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी के पास ४२ नर नागियों के साथ शाह श्रासल ने भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली । सूरिजी ने श्रसल का नाम ज्ञान कलश रख दिया। मुनि ज्ञानकलश आचार्य देव की सेवा में रहते हुए ज्ञान सम्पादन करने में संलग्न हो गया । आपके संसार में जैसे द्रव्य की अन्तराय टूट गई थी वैसे दीक्षा के पश्चात् ज्ञानान्तराय एवं तपस्या करने की भी अन्तराय टूटी हुई थी । बस; कुशान बुद्धि की प्रबलता के कारण, मुनि ज्ञानकलश थोड़े ही समय में विविध भाषा विशारद, नाना शास्त्रविचक्षण- अजोड़ विद्वान बन गये । जैन साहित्य के अनन्य विद्वान होने पर आपने, कठोर तपस्या करना प्रारम्भ किया । तप कर्म की दुष्करता के साथ ही श्राभिप्रह भी ऐसे धारण करते रहे कि आपको कई दिनों तक पारणा करने का अवसर ही नहीं मिला। पट्टावली निर्माताओं ने आपके अभिप्रह के बहुत से उदाहरण बताये हैं- तथाहि--- एक समय मुनि श्री ज्ञानकलशजी ने श्रभिग्रह किया कि लाल वस्त्र धारण करने वाली कोई सौभायती स्त्री मुझे तिरस्कार करती हुई भिक्षा देवे तो ही पारण करना । भला ऐसे तपस्वी, ज्ञानी एवं किया पात्र मुनि का तिरस्कार करने का दुस्साहस किस प्रातकी का होता ? फिर इनकी किर्ति भी इतनी फैली हुई थी कि उनका तिरस्कार किसी के द्वारा होना सम्भव ही नहीं था । मुनीश्री हमेशा भिक्षार्थ अटन करते और विहार भी करते जाते किन्तु तिरस्कार के बदले सर्वत्र प्रशंसा ही के वाक्य सुनते बस भिक्षार्थ गये हुए मुनि व्यों के त्यों पुनः लौट आते । इस तरह चौबीस दिन व्यतीत हो गये । एक दिन नित्य क्रमानुसार मुनीश्री एक ग्राम में भिक्षा के लिये गये । सौभाग्य वश किसी जैनेतर के घर पर श्रा निकले । पहिले तो घर की लाल वस्त्र धारण की हुई सौभाग्यवती बाई ने मुनीश्री का तिरस्कार किया किन्तु मुनिश्री को शान्त एवं स्थिर चित्त से वहीं खड़ा हुआ देखा तो उसने भावना पूर्वक भिक्षा प्रदान की। मुनि ने भी भिक्षा को स्वीकार कर परणा किया। एक समय अभिह किया कि कोई राजा श्राकर श्रामन्त्रण करे तो पारण करू इस श्रभिग्रह के करीब ४५ दिन व्यतीत होगये पर कोई राजा के निमन्त्रण करने का अवसर ही हस्तगत नहीं हुआ | आप भी उपवास का क्रम चालू रखते हुए आचार्य देव के साथ परिभ्रमण करते रहे एक दिन मार्ग में मुनिजी ने एक तालाब के किनारे पर कुछ घोड़ों को खड़े हुए देखे । पास ही कुछ मुसाफिर भोजन के लिये बैठे हुए ज्ञात हुए । उक्त अवसर को देख मुनिश्री जीने पास जाकर पूछा कि आप कौन हैं। पास में बैठे हुए व्यक्तियों ने कहा - हम हमारे राजा के साथ में आये हुए आदमी हैं । हमारे स्वामी भी यहीं पर बैठे हुए हैं। राजा ने यह आवाज सुनी और मुनिराज को अपने यहां श्राया हुआ देखा तो उसको बहुत खुशी हुई उसने तुरतआहार पानी के लाभ की भावना भाई । मुनिश्री ने भी अपने अभिग्रह को पूरा होतें देख भिक्षा ग्रहण की एव ं पारणा कर लिया । कुछ ही क्षणों के पश्चात् राजा को मालूम हुआ कि मुनिश्री के तपस्या का आज ४५ वां दिन था। उनके श्रभिग्रह था कि कोई राजा अपने हाथों से आहार पानी देवे तो पारणा करना शाइ आसल की दीक्षा एवं तपस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only १०५५ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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