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वि० सं० ६३१-६६०
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उपादान कारण दूसरा निमित्त कारण । जब उपादान कारण सुधरा हुआ होता है तो निमित्त कारण सफल बन जाता है । पर मूल उपादान कारण ही अच्छा न हो तो निमित्त कारण उसमें कुछ नहीं कर सकता है । इतना ही नहीं उनका फल भी एक दम विपरीत हो जाता है। जैसे-दो मनुष्यों को एक प्रकार का रोग है । वैद्य ने उनको एक ही दवाई दी जिससे एक रोगी का रोग तो मिट गया पर दूसरे का रोग उसी दवाई से बढ़ गया । इसमें वैद्य तो निमित्त कारण है पर उपादान कारण तो उन रोगियों का ही था।
___ आसल ! मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वह, उपादान कारण को सुधारने का प्रयत्न करे । उपादान कारण अच्छा होगा तो निमित्त कारण अपने श्राप ही श्रा मिलेगा । मैंने जो उदाहरण सुनाया है उसको लक्ष में रखना कि आज इस अवस्था में तेरी जो भावना है बह, दूसरी अवस्था में सेठ की तरह परिवर्तित न होजाय।
श्रासल-गुरुदेव ! मेरी उक्त विरक्त भावना दुखःसुख के कारणों से पैदा नहीं हुई जो सुख के साधनों में विलुप्त हो सके । मेरी भावना तो आत्मिक भावों से प्रादुर्भूत हुई है। निश्चय में तो अभी मेरे अन्तराय कर्म का उदय है ही किन्तु व्यवहार में लोकापवाद एवं धर्म पर आक्षेप होने के भय से मैंने अपने घर में रह कर स्वशक्त्यनुकूल धर्माराधन करना ही समीचीन समझा है।
प्रतिलेखन का समय हो जाने से श्रासल ने, प्राचार्य देव के चरण कमलों में वंदना की गुरुदेव ने आसल को धर्मलाभ देते हुए कहा--आसल तेरे दीर्घ दृष्टि के विचार अच्छे हैं। धर्मभावना में उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहना।
सूरिजी महाराज ने समयानुकूल मालपुर से विहार कर दिया और श्रासल गुरुदेव के वचनानुसार धर्म क्रिया को बढ़ाता हुआ, संतोष वृत्ति को धारण किये हुए कर्मों के साथ भीषण संग्राम करने लग गया। इस समय आसल की वय चालीस वर्ष को अतिक्रमण कर चकी थी। कर्मों की करता से हतोत्साहित होकर उसने अपने नित्य नियम में धर्म कार्य में किश्चत् भी शिथिलता नहीं आने दी। परिणाम स्वरुप पुण्योदय से एक दिन गायें बांधने के स्थान को खोदते हुए अकस्मात एक अक्षय निधान निकल गया । अपने भाग्योदय के समय को आया हुआ जानकर उसने आचार्य देव के वचनों का स्मरण किया। गुरुदेव का अनुपमेय उपकार मानते हुये ज्यों ज्यों निधान को खोदता गया त्यों त्यों वह अक्षय ही होता गया अब तो श्रासल-वह आसल नहीं रहा जो एक घंटे पूर्व था। अब तो वह अनन्य धनकुबेर-श्रीमन्त हो गया।
आसल ने धीरे धीरे शुभ कार्यों में द्रव्य का सदुपयोग करना प्रारम्भ कर दिया । चतुर, शिल्पकला निष्णातशिल्पज्ञ कारीगरों को बुलवाकर एक मंदिर बनवाना भी शुरु किया। पर इससे शा. आसल की प्रकृति में किश्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं पड़ा । वह अपनो पूर्वावस्था को भूला नहीं धनाभाव में गृहस्थाश्रम चलाना कैसा विकट एवं भयंकर होता है उसका चित्र उसके सामने सजीवित् अङ्कित होगया। उसके हृदय में ये भावनाएं दृढ़तम होती गई कि यदि हमारे स्वधर्मी भाइयों में से कोई मेरी पूर्वावस्था के समान दारिद्रय दुःख का अनुभव करता हो या उसके लिये उसका जीवन विकट समस्या मय बन गया हो तो उसे येन केन प्रकारेण सुखी बनाऊ । कारण, दरिद्रता के दुःख का आसल ने कई वर्षों तक अनुभव किया था अतः उसके हृदय में ऐसी पवित्र भावनाओं का प्रादुर्भाव होना सहज-स्वाभाविक था। उपरोक्त विचारों को वह विचारों के रूप में ही विलीन न करता गया किन्तु, उक्त विचार धारा को सक्रिय रूप देते हुए उसने कई दुःखी जीवों को दुःख मुक्त कर सुखी बनाये। आसल ने उक्त कार्यों को प्रशंसा किंवा आडम्बर के ध्येय
शाह आसल का भाग्य
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