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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८ से १२३७ हर्षोत, बालोत, जसोत् , ललाणी सीपाणी, आसाणी, वेगाणी, राखाणी, देदाणी रासाणी जीवाणी, रूपाणी, सानोणी, धमाणी, तेजाणी, दुधाणी, वागाणी जीनाणी, सोनाणी, बोधाणी, कर्माणी, हंसाणी, जैताणी भेराणी, मालाणी, भोमाणी, सलखाणी, सूजाणी, भीदाणी इत्यादि । इस प्रकार से श्रोसवाल जाति की अनेकोनेक जातियां बन गई जिसकी गिनती लगाना मुश्किल है कारण श्रोसवाल जाति भारत के चारों ओर फैली हुई है तथापि वि. सं० १७७० की साल में एक सेवग प्रतिज्ञा करके निकला कि मैं तमाम श्रोसवालों की जातियों को गिन कर ही घर पर आऊंगा । उसने दस वर्ष तक भ्रमण करके ओसवालों की १४४४ जातियां गिन कर दक्षिणा में दस हजार रुपया लेकर घर पर आया तब सेवक की औरत ने सवाल किया, कि आपने अोसवालों की तमाम जातियों के नाम लिख लाए है पर उसमें मेरे पीयर वाले ओसवालों की जाति लिखी है या नहीं ? इस पर सेवक ने पूछा कि तुम्हारे पीयर वाले ओसवालों की क्या जाति है ? औरत ने कहा कि 'दोसी' इस पर सेवक ने निराश होकर कहा कि यह जाति तो मेरे लिखने में नहीं आई है तब औरत ने कहा कि एक दोसी ही क्यों पर और भी अनेक जातियां होसी । सेवग ने कहा कि तुम्हारा कहना ठीक है, ओसवाल, भोपाल एक रत्नाकर हैं उनमें जातियां रूपी इतना रत्न है कि जिसकी गिनती लगाना ही मुश्किल है। इसे पाया जाता है कि एक समय ओसवाल जाति उन्नति के सच्चे शिखर पर थी। ___ मुझे भी जितनी जातियों की उत्पत्ति का इतिहास उपलब्ध हुआ है प्रस्तुत ग्रंथ में यथा स्थान दर्ज कर दिया है । अन्त में इस लघु लेख से पाठक कुल, वर्ण, गोत्र, और जातियों की उत्पत्ति का इतिहास से अवगत हो गये होंगे कि जिन महापुरुषों ने पृथक् २ गोत्र जातियों को समभावी वनाकर एक ही संगठन में प्रन्थित कर उनको उन्नति के उच्चे स्थान पर पहुँचा दी थी पर भवितव्यता बलवान होती है कि उन संगठन का चूर चूर कर पुनः वड़ा वन्धी में टुकड़े टुकड़े कर डाले विशेष आश्चर्य की बात है कि श्राज भ्रातृभाव का जमाना में हम देख रहे हैं कि दूसरे को तो क्या पर एक ही धर्म पालन करनेवाला मानव समाज में भोजन व्यवहार शामिल है वहाँ बेटी व्यवहार नहीं है इसपर जरा सोचा जाय कि जब भोजन व्यवहार कर लिया तब उसके साथ बेटी व्यवहार करने में क्या हर्जा है। यदि हम दूसरों को हलके समझे तब उनके साथ में बैठकर भोजन व्यवहार कैसे कर सके आदि भोजन व्यवहार करते समय हम दूसरे को हलका नहीं समझे तब बेटी व्यवहार करने में क्या संकीर्णता-बस । हमारे पत्तन का मुख्य कारण यही हुआ कि हमारा संगठन छीन्न भिन्न होकर अनेक विभागों में विभाजित हो गया है। दूसरा हम हमारे पूर्वजो के गौरव पूर्ण इतिहास से अनभिज्ञ है । जब तक अपने पूर्वजों का इतिहास का हमको ज्ञान नहीं है वहां तक हमारी नशों में कभी खून उबलेगा ही नहीं जब हमारा खून न उचलेगा तब हम आगे बड ही नहीं सकेंगे यही हमारे पतन के दो मुख्य कारण है। अन्त में हम शासन देव से प्रार्थना करेंगे कि हमारे पूज्य मुनिवरों को सावधान करे कि वे समाज को जोरों से उपदेश कर पुनः उस स्थिति पर ले आवे कि हमारे पूर्वाचार्यों के समय में थी और समाज नेताओं को भी अपने हृदय को विशाल एवं उदार बनाकर संकीर्णता सूचक वाड़ा वन्धी को जड़ मूल से नष्ट कर अपनी समाज का प्रत्येक क्षेत्र को विशाल बनाले कि हम पुनः विशाल बन जावें । इति शुभम् ॥ जातियों के नाम करण कैसे हुए ? । ११६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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