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________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १९७८-१२३७ पूछा, आचार्यश्री ने कहा कि शासनदेवी आपकी रक्षा करेगी । सूरिजी ने सूरि मंत्र का जाप किया अधिष्टायक आया और कहा बिना उद्यम ही स्वयं संकट दूर होगा । चार दिनों में ही सुना कि राजा मृत्यु शरण हो गया है । राजा को गुरु के ज्ञान पर आश्चर्य हुआ। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपनी जिन्दगी में बहुत प्रन्थों का निर्माण किया था जिसको लिखाने के लिये राजाकुमारपाल ने प्रयत्न किया पर ताड़ के वृक्ष अग्नि से दग्ध हो गये थे प्रदेश से मंगाये वह भी नष्ट हो गये व इस पर राजा को विचार हुश्रा कि अहो मैं कैसा हतभाग्य हूँ कि गुरु महाराज ने तो इतने प्रन्थ बनाये तब मैं लिखाने में भी असमर्थ इत्यादि शासनदेवी से प्रार्थना करने से सब वृक्ष पत्र सहित हो गये जिस पर शास्त्र लिखवावे । गुरु उपदेश से राजा ने तारंगा पहाड़ पर भगवान् अजितनाथ का उतंग मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा सूरिजी के कर कमलों से हुई । मन्त्री उदायण का बड़ा पुत्र अबंड बड़ा ही पराक्रमी था जिसने कुंकण के राजा माल्लकार्जुन का शिर छेद कर डाला और भी कई स्थान पर दुश्मन का दमन कर पाटण की प्रभुता स्थापन कर राजभक्ति का परिचय दिया। __ भरोंच के मुनिसुव्रत मन्दिर जीर्ण हो गया था जिसका उद्धार अबंड की ओर से हुआ बत्तीस लक्षण पुरुष के लिये योगनिये अबंड को कष्ट देने लगी इससे अबंड ने गुरु महाराज को कहा। गुरू महाराज ने देवी देवतों को संतुष्ट कर अंबड़ को कष्ट मुक्त किया भरोंच का जीर्णोद्धार करवा कर प्रतिष्ठा कराई। राजा ने गुरू महाराज से सम्वक्त्व धारण किया उस समय राजा ने कहा कि:तुह्माण किं करोहं तुम्हें नाहा भवो यदि गयस्य सयल धणाई समेउ मइ तुह्य स माप्पिउ आप्पा । मैं आपका दास हूँ और भवसागर में आप ही एक मेरे नाथ हो भले धन राज भी मुझे सब मिला है तथापि मैंने मेरी आत्मा तो आपको ही अर्पण की है अतः राजा ने अपना राज सूरिजी को अर्पण कर दिया पर सूरिजी ने कहा हे राजन् ! हम निम्रन्थ निःसंगी को राज से क्या प्रयोजन है फिर भी राजा ने नहीं मानी तब मन्त्रियों ने बीच में पड़ कर यह निर्णय किया कि आज से राजा राज सम्बन्धी कोई भी विशेष कार्य करेगा वह श्रापको पूछ कर ही करेगा। एक समय राजा हस्ती पर आरूढ हो बाजार से जा रहा था एक पतित साधु वैश्या के कन्धे पर हाथ रख कर घर से निकला जिसको राजा हस्तीपर रहा हुआ नमन किया इस बात की सूरिजी को खबर हुई तो आपने व्याख्यान में कहा किपासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती निज्जरा होइ काया किलेसे एमेव कुणइ तह कम्म बंधवा । इधर राजा के नमस्कार से उस साधु को बड़ी भारी लज्जा आई कि वह दुर्व्यवहार को छोड़ मार्ग पर आया अन्त में अनशन किया जिसकी खबर राजा को मिली तो राजा अपनी राणीयों वगैरह को लेकर उस मुनि को वन्दन करने को आया मुनि ने कहा राजन् । आप मेरे गुरु हो कि मुझे दुर्गति में गिरते को मार्ग पर लाये हो इत्यादि। . आचार्यश्रीने राजा को विशेष तत्व बोध के लिये योगशास्त्र, त्रिषष्ट सिलाग पुरुष चरित्र, प्रन्थों की तथा वीतराग स्तोत्रादि की रचना की जिसको पढ़ कर राजाने अच्छा बोध प्राप्त किया राजा ने जैनधर्म की प्रभावना राजा कुमारपाल का सम्यवस्व धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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