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________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एवं प्रचार करने में कुच्छ भी उठा नहीं रखा हेमाचार्य जैसे गुरु और कुमारपाल जैसे भक्त फिर कमी ही क्या १८ देशों में राजा कुमारपाल की आज्ञा वतै रही थी तलाव कुवापर गरणीयों बंधा दी थी की कई मनुष्य तो क्या पर पशु भी विना खाणा पाणी नहीं पी सके तथा राजा ने उदघोषणा करवा दी थी कि मेरे राज्य में कोई भी इलता चलता जीव को मार नहीं सकेगा पर एक समय एक बुढिया ने अपनी पुत्री के बाल समारते समय एक जू को हाथ से मार डाली जिसको प्राण दंड देने का हुक्म हो गया पर पुनः उस पर दया आने से एक जिन मन्दिर उसने बनाया जिसका नाम युक् प्रसाद रखा । पूर्व जमाने में वीतभय पट्टन के राजा उदायन के प्रभावती राणी थी उसके वहाँ भगवान् महावीर की मूर्ति थी पर देवयोग से पट्टन दहन होने से मूर्ति भूमि में दब गई सूरिजी के व्याख्यान से अवगत होकर राजा ने अपने आदमियों को भेज कर वहाँ की भूमि खुदवाई जिससे मूर्ति भूमि से निकली जिसको पट्टण में बड़े ही महोत्सव से लाये राजा ने अपने अन्तेवर गृह में रत्न का मन्दिर बनाना चाहा पर सूरिजी ने मनाई कर दी की अन्तेवर घर में इतना बडा मन्दिर न हो । राजाने दूसरी जगह मन्दिर बनाया । और उस मूर्ति की प्रतिष्ठा गुरुजी से करवाइ। __जैसे सम्राट् सम्प्रति ने जिन मन्दिरों से मेदनि मंडित करवादी थी वैसे कुमारपाल ने भी पाटण तारंगा जालोर वगैरह सर्वत्र हजारों मन्दिर वना कर जैन धर्म की महान् प्रभावना की थी। पूज्याचार्य देव के उपदेश से परमाहत राजा कुमारपाल ने तीर्थाधिराज श्रीशत्रुजय गिरनारादि की यात्रार्थ वडाभारी विराट् संघ निकाला जिसमें राजा की चतुरंगनी सैना एवं सर्व लवाजमा तो था ही साथराजान्तेवर भी था तथा पूज्याचार्यदेवादि श्वेताम्वर दिगम्बर साधु साध्वियों और अन्य साधु एवं लाखो नर नारियाँ थे कारण उस समय पाटण में १८०० करोड़ पति थे और लक्षाधिशों की तो गिनती भी नहीं थी जब हेमचन्द्राचार्य जैसे गुरु कुमारपाल जैसे भक्त राजा फिर उस संघ में जाने से कौन वंचित रहे केवल पाटण का संघ ही नहीं पर और भी अनेक प्राम नगरों के श्रीसंघ भी इस यात्रा में शामिल हुए थे संघ का ठाठ दर्शनीय था बहुत से भावुक तो छ री पाल नियमों का पालन करते थे तब राजा कुमार पाल गुरु महाराज की सेवा में पैदल चलता था क्रमशः चलते हुए जब तीर्थ का दूरसे दर्शन हुआ तो मुक्ताफल से वधाया तत्पश्चात् चतुर्विध श्रीसंघ ने युगादीश्वर भगवान का दर्शन स्पर्शन सेवा पूजा कर अपने कर्मों का प्रक्षालन कर अपने को अहो भाग्य समझे । तीर्थ पर अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजारोहण स्वामिवात्स ल्यादि शुभ कार्य कर संघ पुनः पाटण आया वहां भी मन्दिरों में अष्टान्दिका महोत्सव स्वामिवात्सल्य पूजा प्रभावना और साधर्मी भाइयों को पहरावनी दे कर राजा ने अपनी भक्ति का यथार्थ परिचय दिया । धन्य है भगवान् हेमचन्द्रसूरि को और धन्य है जैन धर्म का उद्योत करने वाले राजा कुमारपाल को सम्राट सम्प्रति के पश्चात् जैनधर्म का उद्योत करने वाला एक राजा कुमारपाल ही हुआ था इनको अन्तिम राजा कह दिया जाय तो भी अत्युक्ति नहीं है। प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के पुनीत जीवन के विषय में बड़े प्राचार्यों से अनेक प्रन्थों का निर्माण किया है पर मैंने यहाँ प्रभाविक चरित्र के अनुसार संक्षिप्त से ही केवल दिग्दर्शन मात्र ही करवाया है। प्राचार्य हेपचन्द्रसूरि का जन्म वि० सं० ११४५ कार्तिक शुक्ला पर्णिमा के शुभ लग्न में हुआ था सं० ११५० वर्ष पांच वर्ष की बालावस्था में दीक्षाली और सं० ११५६ वर्ष गुरु ने सर्व गुण सम्पन्न जान कर आचार्य पद १२७० राजा कमारपाल का यात्रार्थ संघ Jain Education International For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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