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________________ प्राचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं२ ११७८-१२३७ देते तब अन्य प्रान्त वाले मारवाड़ मालवा वालों को वेटी नहीं देते । यही कारण है कि एक प्रान्त के जैनों का इसरे प्रान्त के जैनों के साथ कुछ भी सम्बन्धनहीं है और धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में एक दूसरे की मदद भी नहीं करते । इतना ही क्यों पर अकेले मारवाड़ के ओसवालों में भी राजवर्गी, मुशदी लोग बाजार का साथ अर्थात् व्यापार करने वालों के यहां वेटी देने में संकोच करते हैं धनवान लोग साधारण स्थिति वालों को अपनी पुत्री देना नहीं चाहते यही कारण है कि आज समाज में कुजोड़ एवं वाल-वृद्ध विवाह और कन्या विक्रय, वर विक्रय का भूत सर्वत्र तांडवनृत्य कर रहा है विधवा विदूर और कुंवारों की दशा इनसे भी शोचनीय है यदि यही परिस्थिति रही तो एक शताब्दी में ही इस समाज की इतिश्नी होने में कोई संदेह नही है । खैर, प्रसंगोपाल इतना कह कर पुनः जातियों के विषय पर आते हैं कि जैनाचार्यों ने वर्ण, जाति, गौत्रादि को एक कर संगठन को मजबूत बनाया था । उसी महाजन संघ की तीन शाखा हुई जिसमें एक उपकेवंश एवं ओसवाल जाति के अन्दर कितने गौत्र एवं जातियां वन गई थी और पृथक् २ जातियां बनने के कारण भी बड़े ही अजब थे जिसको पढ़ कर पाठक आश्चार्य अवश्य करेंगे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में महाजन संघ की स्थापना की थी वाद उसके अन्दर नामांकित पुरुष हुए । जैसे १ नागवंशी आदित्यनाग नामक पुरुषने सामाजिक एवं धार्मिक ऐसे-ऐले काम किए कि उनकी संतान, आदित्यनाग के नामसे प्रसिद्ध हुई और आगे चल कर यही इनका गौत्र बन गया। तथा चौरड़िया, गुलेच्छा, पारख, गदइया, आदि ८४ जातियों इसी गौत्र से उत्पन्न हो गई इससे हम इतना जरूर समझा सकते हैं कि किसी समय इस जाति की वड़ी भारी उन्नति थी और इस जाति में इतने ही नामांकित पुरुष हुए उन के नाम एवं काम से ही पृथक २ जातियां वन गई । पर उन जातियों के छोटे छोटे बाड़े वन जाने से लाभ के बदले हानि के कारण वन गये थे। इस पतन के समय में भले ही आज वे ८४ जातियां नहीं रही हो पर शावलियों से हम देख सकते हैं कि एक समय एक ही गौत्र की ८५ जातियां बन गई थी २- वप्पनाग नामक महापुरुष की संतान वप्पनाग गौत्र के नाम से मशहूर हुई इनकी भी आगे चल कर ५२ जातियां बन गई थी। ३-महाराजा उत्पलदेव की सन्तान ने समाज में अति श्रेष्ठ कार्य कर वतलाने से वे श्रेष्ठिकहलाये आगे चल उनकी भी कई जातियां वन गई थी। ४-तप्तभट्ट पुरुष की संतान तप्तभट्ट कहलाई। ५-वल्लाह नामक भाग्यशाली की संतान वलाहगौत्र कहलाई। ६- कुम्मट का व्यापार करने वाले कुम्मट कहलाये । ७-कर्णाट से आये हुए लोग कर्णाट कहलाये । ८-कन्नौज से आऐ हुए समूह कन्नोजिये कहलाए । ९.-डिडुनगर से आए हुए लोग डिडु कहलाए । १०-भादा की संतान भाद्र गौत्र के नाम से मशहूर हुई । इत्यादि अनेक गौत्रों की सृष्टि बन गई । यह बात तो स्वयं सिद्ध है कि श्रोसवाल जाति में अधिक लोग राजपूत ही हैं और राजपूतों में 'दारुड़ा पिना और मारूड़ा गाना' इसके साथ हासी मश्करी करने का रिवाजा था। जैनाचार्यों ने उनके मांसमदिरादि सेवन की कुप्रथा छुड़ा कर जैन तो बना दिये गये थे पर उनकी जतियों बनने का कारण ११६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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