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________________ वि० सं० ७७८-८३७] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तीन सौ से अधिक गच्छों की संख्या आती है इसमें बहुत से गच्छ तो सम समाचारी वाले हैं और कई क्रिया भेद के गच्छ भी हैं और वे सब अपनी-अपनी पार्टी की रक्षा में एवं वृद्धि में अपनी सव शक्ति को खर्च करने में ही अपना गौरव सममा । पर इससे जैन धर्म को क्या लाभ होता, इस बात को भगवान् महावीर की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाले भूल गर। आगे चल कर कई मत पैदा हुए जिन्होंने जैन धर्म के संगठन को चूर चूर कर डाला और समाज को फूट व कुसम्प का झोपड़ा बना डाला और कई क्रियाएं भी ऐसी कर डाली कि जिससे जैन धर्म दुनियां की नजर में गीर भी गया कारण साधारण जनता तत्त्व पर लक्ष्य कम देकर वर्तमान बाह्य क्रिया पर ही अपना मत बांध लेती है जैसे जैनों की अहिंसा ने जगद् उद्धार किया था और सर्वत्र इसके गुण गाए जाते थे। पर उसके आचरण में इतना परिवर्तन कर दिया कि आज अबोध जन उसकी हंसी करने लग गये । ऐसी ही वेश परिवर्तन का कारण हुा । जैनों ने देश, समाज और सर्व साधारण के हित के लिए अरबों खरबों द्रव्य व्यय किया पर कई असमझ लोग मनुष्य को अन्न जल, पशुओं को घास डालने में भी पाप समझने लगे तथा मरते हुए जीव को बचाने में भी पाप की कल्पना करने लग गए । जो अज्ञानी लोग केवल ऐसे मनुष्यों के परिचय में आते हैं वे जैन धर्म के प्रति कैसे भाव रखते हैं पाठक ! स्वयं समझ सकते हैं। ___ अब जातियों की संख्या को भी सुन लीजिये । भगवान महावीर और प्राचार्य रत्नप्रभसूरी ने पृथक २ वर्ण, गौत्र, जातियों के भेदभाव मिटाकर सब को समभावी जैन बनाए थे। कालान्तर में उनके तीन नाम निर्माण हुए। श्रीमालनगरवालोंका श्रीमाल, प्राग्वटनगरवालोंका प्राग्वट और उपकेशनगरवालोंका उपकेश। केवल नाम पृथक हुए पर इनका रोटी बेटी का व्यवहारादि सब शामिल ही थे इतना ही क्यों पर बाद में भी जैनाचार्यों ने मांस, मदिरासेवी क्षत्रियों को जैनधर्म की दीक्षादी। उन नव दीक्षित क्षत्रियोंका रोटी बेटीका व्यवहार उसी समय से शामिल कर लिया गया था पर किसी समय एक जाति वाले के हृदय में अहंपद आया और जहां अपनी चलती थी दूसरे को कह दिया कि जाबो हम तुमको बेटी नहीं देंगे। तो दूसरे स्थान दूसरे की चलती थी वहां उन्होंने कह दिया कि हम तुमको बेटी नहीं देंगे । बस, बेटी व्यवहार वन्द होगया किसी-क्षेत्र को संकीर्ण करना यह पतनका ही कारण है । इसी प्रकारएक नीर्जिव कारणसे लघु सज्जन, बड़े सजनके भेद पड़ गए। अधुनी जैनोंकी एक यहभी खूबी है कि वे तौड़नातो नब जानते हैं पर जोड़ना नहीं जानते जैसे ऊपर बतलाया गया है । कि जैन धर्म के पालन करने वाले श्रीमाल, प्राग्वट, उपकेश वंश एवं लघु वृद्ध-सजनके श्रा समें बेटी व्यवहार था पर वह टूट गया फिर उसको जोड़ नहीं सके इन पार्टियों के अग्रेश्वर नेता अपने दिल में समझते हैं कि इन संकुचित विचारों से हमें हनि पहुंची और पहुंचती जा रही है फिर भी इसके लिए आज तक किसी ने प्रयत्न नहीं किया। इसमें अहंपद के अलावा कुछ नहीं है प्रत्येक पर्टी यही समझती है कि मैं कुछ करुंगा तो कमजोर कहलाऊंगा मेरे क्या गरज पड़ी है कि मैं आगे होकर नम्रत्ता करूं इससे पाया जाता है कि जैनधर्म की हानि लाभ की किसी को परवाह नहीं है केवल अपने २ अहंपद की रक्षा करना सबके दिल में है । इसी प्रकारअग्रवाल, पल्लीबाल, सेठिया, अरणोदिया पीपलोदा पंचा, ठाइया, भावसार, मोड़ गुर्जर, नेमा लाडवादि । बहुत जातियां जैनधर्म पालन करने वाली थी परन्तु उनके अन्दर से किसी एक का भी बेटी व्यव. हार दूसरे के साथ नहीं है इतना ही नहीं पर एक जाति दूसरी जातिकी पहचान तक भी नहीं रखतो । क्षेत्रापेक्षा मारवाड़ के ओसवाल मेवाड़, मालवा, पंजाब, गुजरातादि अन्य प्रान्त वालों ओसवालों को वेटी नहीं नगरों के नाम पर तीन शाखाएँ namanamannaamanamananmanna ammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmunam Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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