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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १७१८-१२३७ जैनधर्म की यह एक विशेषता है कि वे अपने उन्नति के समय में एवं सर्वत्र जैन राजाओं की हुकुमत में भी किसी अन्य धर्मियों पर किसी प्रकार जोर जुल्म नहीं किया था। वलात्कार से न तो किसी को जैन बनाया था और न किसी की जायदाद ही छीन थी। पर अन्य धर्मियों में यह समभाव नहीं था। उन्होंने अपनी सत्ता में जैनों को बहुत सताया। यहां तक की पुष्पमित्र ने हुक्म नामा निकाला कि जैन- बौद्ध साधुओं का शिर काट कर लावेगा १०० मोहरें उसको पुरस्कार स्वरूप दी जावेगी । दहाड़ राजा ने हुक्म निकाला कि त्यागी साधु-सारंभी ब्राह्मणों को नमस्कार करे । महाराष्ट्र प्रांत में हजारों जैन साधुओं को मौत के घाट उतार, दिये, वह भी एक बार ही नहीं, पर दो तीन बार । कलिंग में भी जैनों पर अत्याचार कर कलिंग को जैनों से निर्वासित कर दिया। श्वेतदूत राजा तोरमण आचार्यश्री हरिगुप्तसूरि के उपदेश से जैनधर्म का अनुरागी बन गया था और उसने भ० ऋषभदेव का जैनमंदिर भी बनवाया था पर उसका ही पुत्र मिहिरकुल शिव धर्म को अपनाकर जैनो पर इतना अत्याचार किया कि कई जैनों को अननी जन्म भूमि (मरुभूमि) का त्याग कर अन्य न्तों में जाकर बसना पड़ा इत्यादि । अनेक उदाहरण विदामान है और जैलों के मंदिर तो सैकड़ों की संख्या में जैनोत्तरों ने इजम कर लिये जो आज भी विद्यमान हैं। खैर, प्रसंगोपात इतना लिख कर अब हम मूल विषय पर आते हैं। जैाचार्यों ने जिस वर्ण, जाति, गौत्रादि, ऊंच नीच रूपी जहरीले भेदभाव एवं वाड़ाबन्धी को समू। नष्ट कर तथा मांसाहारी एवं व्याभिचारी जैसी राक्षसी वृत्ति बाले मनुष्यों की शुद्धि कर सदाचारी एवं सयभावी बनाए थे और उनके श्राप में रोटी बेटी का व्यवहार स्त्र खुले दिन से होता था। इस सहृदयता ने जैनों की संख्या को बढ़ा कर उन्नति के उंचे शिखर पर पहुँचा दिया । जैन केवल स्वार्थी ही नहीं थे पर वे परमार्थी भो थे उन्होने देशवासी भायों के लिये काल, दुकाल एवं राज संकट के समय प्राण प्रण से एवं असंख्य द्रव्य व्यग करके अपने स्वार्थ त्याग द्वारा जन समाज की बी २ सेवाएं की थी। समाज और धर्म के लिये तो कहना ही क्या था। आज भी इतिहास पुकार-पुकार कर कहता है कि जैनों ने देश से बाकी है शायद ही दूसरे किसी ने की हो । प्रत्यक्ष एमाण भी भारत में जगतसेठ, नगरसेठ, टीकायत, चौबटिया, पंच, बो ग, साहुकार, शाह आदि ऊचे पदों पर जैन को ही सन्मान मिला था। इससे भी पाठक ! अनुमान कर सकते हैं। जैनो की वह उन्नति स्थायी रूप में नहीं टिक सकी जब से जैनों में आपस का प्रेम गया, पर उपकार की बुद्धि गई, सारियों की बात्सल्यता गयी, धर्म का गौरव गया और स्वार्थ जैनों पर छापा मारा इधर ब्राह्मणों के संसर्ग पुन: जातियों की सृष्टि शुरू हुई छोटे छोटे बाड़े बंधने लगे जाति च्छर्ता का भत जैनों पर सवार हुअा। ऊंच नीच भागना ने हृदय में जन्म लिया, जाति पच्छरता ने अहंपद पैदा किया । गत, पन्य गच्छों की बाड़े बन्दी होने लगी, शद्धि की मिशन के कष्ट आकर बेकार बन गई। राज्य सत्ता ने जैन से नार लिया बम, जैनों की वनति ने उनकी गहरे गर्त में डाल दिया जिसको आज हम अपनी आंखों से देख रहे हैं। एक ही सहावीर , उपासकों में सबसे पहले श्वेताम्बा और दिगम्मबर दो पार्टियां बनीं। फिर दिगम्बरों में संघ भेद होकर अनेक टुकड़े हो गए और श्वेताम्बरियों में चैत्यवास, वस्तीवास, दो बड़ी पार्टियां हो गई तदन्तर गच्छों के भेद हुए जिनमें ८४ गच्छ तो केवल कहने मात्र के हैं पर नामावली लिखी जाय तो ऊँच नीच के भेदों को मिटा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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