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________________ आचार्य यक्षदेवमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ परिषदा पर इस कदर का प्रभाव डाला कि श्रोतावर्ग चौंक उठा और हरेक के दिल में दान देने की विशेष रुचि जागृत होगई। ____ इस प्रकार सूरिजी ने अपने व्याख्यानों में प्रत्येक विषय पर विवेचन कर श्रोताजनों पर धर्म का खूब ही प्रभाव डाला ओर भावुको ने अच्छा लाभ भी प्राप्त किया। उस समय का श्रीसंघ कल्पवृक्ष ही समझा जाता था । आवार्य श्री जिस सम । जो कार्य श्रीसंघ से करवाना चाहते उसी विषय का उपदेश करते कि आचार्य श्री का हुक्म श्रीसंध उठा ही लेता। एक दिन सूरिजी ने तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय का महत्व और संघपति पद का वर्णन किया तो बलाह गोत्रिय शाह केसा ने शत्रुजय का संघ निकालने का निश्चय कर लिया। चतुर्मास समाप्त होते ही शाह केसा ने खूब उत्साह से विराट संघ निकाला । पट्टावलीकारों ने उस संघ का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। तीर्थ पर पहुँचे वहाँ तक पाँच हजार साधु साध्वियों और एक लक्ष भावुकों की संख्या बतलाई है । शाहफेसा ने इस संघ के निमित्त पाँच लक्ष द्रध्य व्यय किया । यात्रा कर संघ तथा कई मुनि तो वापिस लौट आये और सूरिजी वहीं रहे । आचार्य यक्षदेवसूरि जैसे ज्ञानी थे वैसे तपस्वी भी थे। श्राप पहिले से ही कठोर तप तपने वाले थे परन्तु शत्रुजय पधारने पर तो आपने अपनी शेष जिन्दगी के लिये छट छट पारणा और पारणा के दिन भी आंबिल करना इस प्रकार की भीषण प्रतिज्ञा करली थी। सूरिजी जानते थे कि दुष्ट कर्म विना तपस्या कट नहीं सकता है और जब तक पुद्गलों का संडा नहीं छुटे वहाँ तक आत्मा निर्मल भी नहीं हो सकता है । अतः आपश्री ने निरन्तर तपश्चर्य करना शुरु कर दिया। सूरिजी महाराज का अतिशय प्रभाव और कठोर तपस्या के कारण कई राजा महाराजा भी आपकी सेवा में उपस्थित होकर आपकी देशना सुधा का प किया करते थे। इतना ही क्यों पर कई देवी देवता भी सूरिजी की सेवा कर अपने जीवन को सफल बनाते थे। सौराष्ट्र के विहार के अन्दर कई स्थानों पर आफ्की बौद्धों से भी भेट हुई थी पर वे सूरिजी के सामने सदैव नत मस्तक ही रहते थे। सूरिजी ने सौराष्ट में विहार कर कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई, कई मुमुक्षुत्रों को दीक्षा भी दी और कई अजैनों को जैनधर्म में दीक्षित किये । तत्पश्चात् आपका विहार कच्छभूमि में हुआ। आपके पधारने में वहां भी धर्म की खूब ही जागृति हुई । आपके कई साधु पहिले से ही विचरते थे उन्होंने भी सूरिजी की सेवा में आकर वंदन किया। सूरिजी ने उनके प्रचार कार्य पर खूब ही प्रसन्नता प्राट की और उनमें जो विशेष योग्य थे उनको पदस्थ बना कर उनके उत्साह को बढ़ाया। जब सूरिजी कच्छ में घूम रहे थे इस बात का पता सिंध वासियों को मिला तो उन लोगों ने दर्शनार्थ आकर सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! एक बार जन्मभूमि की यात्रा कर सिन्धवासियों को दर्शन देकर कृतार्थ बनावें। सब लोग आपके दर्शन के प्यासे हैं और प्रतःक्षा कर रहे है सुरिजी के साथ कल्यणामूर्ति ( वीरपुर का राजा कोक ) भी थे और उनका हाड़ और हाड़ की मांगी जैनधर्म में इतनी रंगी हुई थी कि वृद्धावस्था में कठोर तपस्या और ज्ञान ध्यान में तल्लीन रहते थे। सिंधवासियों ने उनसे बहुत ही आग्रह किया कि पूज्यवर ! आप पहिले ही हमारे नाथ थे और अब तो विशेष हैं । अतः आप जल्दी ही सिन्ध को परवन बनावें । मुनि कल्याणमूर्ति ने कहा मैं पूज्याचार्यदेव की कृपा से परमानन्द में हूँ : मेरी इच्छा है कि मुझे भव भव में जैनधर्म की शरण हो । संसार में तारक और पार उतारफ है तो एक जैनधर्म ही है। देवानुप्रिय ! संसार में विषय कषाय की जालों जाल अग्नि लग मूरिजी का कच्छ में विहार और सिंध का संघ ] ७५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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