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________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बोध देकर अाद्विसाधर्मोपासक-जिनधनानुयायी बनाये। उन्हें उपकेश वंश में सम्मिलित कर पूर्वाचार्यों के आदर्शानुसार उपकेश वंश की वृद्धि की। यह कार्य तो आपके पूर्वजों से अनवरत गति पूर्वक चलग ही आ रहा था। - आर्यनी देवगुप्रसूरि का शिष्य समुदाय भी खूब विशाल संख्या में था! वे जिस किसी क्षेत्र में जाते; नये जैन बनाकर अपनी चमत्कार पूर्ण शक्ति का एवं प्रभाविकता का परिचय दे ही दते थे। एक समय प्राचार्यश्री देवगुपसूरिजी म० शिवगढ़, दाबलीपुर, भिन्नमाल, सत्यपुर, कोरंटपुर, शिवपुरी इत्यादि नगरों में धर्म प्रचार करते हुए चंद्रावती पधारे । तत्रस्थ श्रीसंघ ने आपका बड़ा ही शानदार स्वागत किया। सूरिजी ने अपनी वैराग्योत्पादि का व्याख्यान धारा चन्द्रावती में भी नित्य नियमानुसार प्रारम्भ रक्खी। त्याग, वैराग्य एवं आत्म कल्याण विषयक प्रभावोत्पादक व्याख्यानों को श्रवण कर संसारोद्विग्न कई भावुक संसार से विरक्त हो गये । प्राग्वट वंशीय शाह भूता ने जो अपार सम्पत्ति का स्वामी था; जिसके भाणा, राणा, खेमा और नेमा नाम के चार पुत्रादि विशाल परिवार था-स्त्री के देहान्त हो जाने से आत्म कल्याण करना ही अपना ध्येय बना लिया था। श्रीशत्रुशय का एक विराट् संघ निकाल कर पवित्र तीर्थाधिराज की शीतल छाया में दीक्षित होने का उसने मनोगत दृढ़ संकल्प कर लिया। अपने साथ ही अपने आत्म-कल्याण की उत्कट भावना वाले भावुक व्यक्तियों को भी दीक्षा के लिये तैयार कर लिये। उक्त मनोगत विचारों की दृढ़ता होने पर श्री संघ के शा. भूता ने सूरिजी से चातुर्मास की प्रार्थना की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण जान चातुर्मास चन्द्रावती में ही कर दिया। बस फिर तो था ही क्या ? नगर निवासियों का उत्साह खूब ही बढ़ गया। शाह भूता ने भी आचार्यश्री एवं चतुर्विध श्रीसंघ का आदेश लेकर संघ के लिये आवश्यक तैय्यारियाँ करना प्रारम्भ कर दी । समयानुसार खून दूर २ आमन्त्रण पत्रिकाएँ एवं मुनियों की प्रार्थना के लिये योग्य मनुष्यों को भेज दिये । उनको अपने द्रव्य का शुभ कार्यों में सदुपयोग कर दीक्षा द्वारा आत्म कल्याण करना था अतः किसी भी तरह के शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित न समझा। शाह भूता के पुत्र भी इतने विनयवान एवं आज्ञा पालक थे कि उन्होंने अपने पिताश्री के इस कार्य में किञ्चिन्मात्र भी विघ्न उपस्थित नहीं किया। वे सब एकमत सेठजी के इस कार्य में सहमत थे। वे इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि जनकोपार्जित द्रव्य पर किञ्चित भी हमारा अधिकार नहीं: फिर इस धर्म कार्य में द्रव्य का सदपयोग तो मानव जीवन के लिये उभयतः श्रेयस्कर ही है । अहा ! वह कैसा स्वावलम्बन का पवित्र समय था कि सब लोग अपने भाग्य पर विश्वास रखते थे। वे दूसरे की आशा पर जीना (चाहे अपना पिता ही क्यों न हो) कृतघ्नता समझते थे। चातुर्मास समाप्त होते ही मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी के शुभ दिवस आचार्यश्री ने शाह भूता को संघपति पद अर्पण कर संघ को शत्रुञ्जय यात्रार्थ प्रस्थान करवा दिया । चार दिवस पर्यन्त नगर के बाहिर ठहर कर मौन एकादशी की आराधना चन्द्रावती में ही अत्यन्त समारोह पूर्वक की । बाद शुभ शकुनों से रवाना हो मार्ग के मन्दिरों के दर्शन करते हुए पवित्र तीर्थराज की स्पर्शना की। आठ दिवस पर्यन्त अष्टान्डिका-महोत्सव, पूजा, प्रभावना, स्वधर्मी वात्सल्यादि धार्मिक कृत्य कर संघपति भूता ने संघ में आगत स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिका के साथ मोदक एवं अमूल्य वस्त्रादि वस्तुओं की प्रभावना दी। अपने पुत्रों की अनुमति ले आपने १० साथियों के साथ सूरिजी के कर कमलों से दीक्षा स्वीकार को । सूरिजी ने भूता का नाम विनय रुचि रख दिया । दीक्षा के माङ्गलिक कार्य के पश्चात् प्राचार्यश्री वहां से विहार कर कच्छ, सिन्ध, आदि प्रान्तों में परिभ्रमः करते हुए पञ्जाब प्रदेश में पधार गये। इधर नव दीक्षित मुनि विनयरूचि को ज्ञानावरणीय कर्म के प्रगाढ़ोदय से बहुत परिश्रम करने पर ज्ञान नहीं आ सका। उनकी बुद्धि इतनी कुण्ठित थी कि वे जिस पाठ को दिन को रट रट कर कण्ठस्थ करते थे रात्रि १३६४ संघपति भूता के निकाला तीर्थों का संघ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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